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________________ * योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल * १२३ * (शुभ) प्रवृत्ति करने से दर्शन के पर्यायों की विशुद्धि करता है। वचन-साधारण दर्शनपर्यायों को विशुद्ध करके जीव सुलभबोधिभाव को निष्पन्न करता है, दुर्लभबोधिभाव की निर्जरा (विनाश) कर लेता है। ५८वें बोल में कहा गया हैकाय-समाधारणा (संयमयोग में शरीर को स्थापित करने) से जीव (उत्तरोत्तर) चारित्रपर्यायों को विशुद्ध करता है, (उन्मार्ग-प्रवृत्ति के निरोध होने से उसके क्षयोपशमरूप चारित्रपर्याय शुद्ध होते जाते हैं। चारित्रपर्यायों को विशुद्ध करके वह यथाख्यातचारित्र की विशुद्धि करता है। यथाख्यातचारित्र के विशोधन से चारों अघातिकर्मों का क्षय कर देता है। तदनन्तर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परम शान्ति (निर्वाण) को प्राप्त होता हुआ वह सर्व प्रकार के दुःखों का सर्वथा अन्त (नाश) कर देता है। यहाँ विचारणीय है कि प्रस्तुत तीन सूत्रों में उक्त मन, वचन, काय के शुभ योग से कितने गुण निष्पन्न हुए? अतः शुभ योग को कथंचित् संवररूप मानने में कोई आपत्ति नहीं है। आशय यह है कि अशुभ योग को एकान्तरूप से आस्रव मानने में कोई हर्ज नहीं, किन्तु शुभ योग को, विशेषतः सम्यग्दृष्टि के तथा इससे ऊपर के गुणस्थान वालों के शुभ योग को, एकान्त आस्रव मानना ठीक नहीं। 'दशवैकालिकसूत्र' के १0वें अध्ययन में कहा गया है-"जो साधक सम्यग्दृष्टि है, सदा अमूढ़ (समस्त मूढ़ताओं से रहित) है, तपश्चर्या से पुराने पापकर्मों को धुनता (नष्ट करता) है तथा ज्ञान, तप और संयम में जिसके मन-वचन-काया सुसंव्रत (शुभ योग-संवर में प्रवृत्त) हैं; वह भिक्षु है।"२ अतः ज्ञान, तप और संयम में जिस साधक के तीनों योग प्रवृत्त रहते हैं, उसके शुभ योग को सुसंवर से युक्त मानना भगवद्वचन-सम्मत है। यद्यपि 'उत्तराध्ययन' के अनुसार-योग-प्रत्याख्यान से अयोगित्व को प्राप्त करके अयोगी जीव नये कर्म नहीं बाँधता, पूर्वबद्ध कर्म की निर्जरा कर लेता है। परन्तु सहाय-प्रत्याख्यान से जीव संयमबहुल, संवरबहुल एवं १. (क) कायगुत्तयाए णं संवरं जणयइ। - संवरेणं कायगुत्ते पुणो पावासव-निरोहं करेइ। -उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ५५ - (ख) मणसमाहारणयाए एगग्गं जणयइ। एगग्गं जणइत्ता नाणपज्जवे जणयइ। नाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ मिच्छत्तं च निज्जरेइ। ___ -वही, अ. २९, सू. ५६ (ग) वयसमाहारणयाए दंसणपज्जवे विसोहेइ। वय-साहारण-दंसण-पज्जवे विसोहित्ता सुलहबोहियत्तं निव्वत्तेइ। दुल्लह-बोहियत्तं निज्जरेइ। -वही, अ. २९, सू. ५७ (घ) कायसमाहारणयाए चरित्त-पज्जवे विसोहेइ। चरित्त-पज्जवे विसोहित्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेत्ता चत्तारि केवलिकम्मसे खवइ। तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ परिनिव्वायइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ।। __ -वही, अ. २९, सू. ५८ २. सम्मदिट्ठी सया अमूढे, अत्थि हु नाणे तवे संजमे य। - तवसा धुंणइ पुराण-पावगं, मण-वय-काय-सुसंवुडे जे स भिक्खु॥ -दशवैकालिक, अ. १0, गा. ७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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