SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ १२० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ संसारी आत्मा को प्रवृत्ति के लिए त्रियोग की आवश्यकता आशय यह है कि अकेली आत्मा संसार में कुछ नहीं कर सकती। आत्मा को संसार में प्रवृत्ति करने के लिए मन, वचन और काया की आवश्यकता पड़ती है। जीव (आत्मा) कायिक प्रवृत्ति शरीर (काययोग) से करता है, वाचिक प्रवृत्ति (वाग्व्यवहार) वचनयोग से और मानसिक प्रवृत्ति (विचार) के लिये मनोयोग अपनाता है। मन, वचन और काया, ये तीन प्रमुख साधन आत्मा को प्रवृत्ति करने के लिए मिलते हैं। समस्त प्रवृत्तियों के स्रोत या प्रबल कारण, ये तीनों योग हैं। मन, वचन और काया, ये तीनों (आत्मा के) करण कहलाते हैं। ये तीनों ही जड़ हैं-पुद्गलरूप हैं। अतः ये तीनों अपने आप में न तो अच्छे हैं और न खराब हैं। पुद्गल पुद्गल हैं, इनका क्या अच्छा, क्या बुरा? आत्मा इनका उपयोग कैसा करती है? इस पर सारा दारोमदार है। तलवार अच्छी है या खराब? यह तो उसके उपयोग करने वाले पर निर्भर है। वह अपनी रक्षा के लिए भी उसका उपयोग कर सकता है और अपनी हत्या के लिए भी। तलवार का अपने आप में कोई दोष नहीं है, क्योंकि उस (जड़) के सदुपयोग-दुरुपयोग का आधार चेतन (आत्मा) पर है। इसी प्रकार तीनों जड़-पुद्गलरूप मन-वचन-काया के योगों का सदुपयोग-दुरुपयोग भी चेतन (आत्मा) पर निर्भर है। तीनों योग विवेकी के लिए कर्ममुक्ति में सहायक वस्तुतः इन तीनों योगों (करणों) का अपना-अपना. कार्य है। ये तीनों कर्मबन्ध कराने में भी कारण हैं और कर्मक्षय कराने तथा कर्मनिरोध कराने में भी। 'बृहत्कल्पभाष्य' में ठीक ही कहा है-“मन, वचन और काया, ये तीनों योग अयुक्त (अनुपयोगी = अविवेकी) के लिए दोष के हेतु हैं और युक्त (विवेकी) के लिए गुण के हेतु।"१ यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि पूर्वबद्ध कर्म के उदय से जीव को मन, वचन और शरीर, ये तीनों करण मिलते हैं, किन्तु अविवेकी जीव उनसे शुभ या शुद्ध के बदले अशुभ प्रवृत्ति करता है, उस प्रवृत्ति से फिर नये कर्म उपार्जन करता है, बाँधता है, फिर वही-वैसी ही प्रवृत्ति करता है, फिर नये कर्म (आम्नव) उपार्जन करता है, फिर उसी प्रकार बाँधता है। इस प्रकार कर्म से प्रवृत्ति और प्रवृत्ति से कर्म; यो संसारचक्र चलता रहता है। यह चक्र जन्म-जन्मान्तर से चलता आ रहा है। यदि कोई विवेकी या सम्यग्दृष्टि पुरुष प्रबल पुरुषार्थ करके अपनी १. (क) 'पाप की सजा भारी, भा. २' (मुनि श्री अरुणविजय जी) से भावांश ग्रहण, पृ. ९३४ (ख) मणो य वाया काओअ, तिविहो जोगसंगहो। ते अजुत्तस्स दोसाय, जुत्तस्स उ गुणावहा॥ -बृहत्कल्पभाष्य ४४४९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy