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________________ * योग का मार्ग : अयोग-संवर की मंजिल ११९ क्रिया या प्रवृत्ति नहीं कर सकती और न ही आत्मविहीन अकेला शरीर कुछ भी प्रवृत्ति या क्रिया कर सकता है । जब आत्मा और शरीर दोनों का संयोग होता है, तभी योग (प्रवृत्ति या क्रिया) होता है। इसी योग से कर्मों का आनव होता है, वही चतुर्गतिकरूप संसार का कारण है।' शरीर संयोगवश क्रिया, कर्म और लोक, तीनों का भोक्ता आत्मा यही कारण है कि भगवान महावीर ने 'आचारांगसूत्र' में योग से अयोग तक पहुँचने का संकेत किया है। यह संसरण करने वाला जीव (आत्मा) मन-वचन-कायरूप योग से क्रिया ( प्रवृत्ति) करता है, फिर प्रवृत्ति (क्रिया) से जुड़ता ( बँधता) है, तब कर्म का संयोग आत्मा के साथ होता है। कर्म के साथ संयोग के कारण आत्मा विविध लोक (संसार) का संयोग (भ्रमण) करता है । परन्तु क्रिया, कर्म और लोक इन तीनों को भोगने - अनुभव करने वाला विविध गतियों - योनियों में सुख-दुःखादि का अनुभव करने वाला (संसारी) आत्मा है । २ योग द्वारा बाह्य स्थिति और उपयोग द्वारा आध्यात्मिक स्थिति इस सूत्र के साथ ही यह संकेत है कि जब संसारी आत्मा मन-वचन-कायरूप से बाह्य वस्तुओं के साथ जुड़ती है, 'पर' से सम्बन्ध स्थापित करती है, 'पर' में 'स्व' का दर्शन करती है, तब वह उपर्युक्त बाह्य स्थिति से जुड़ती है और जब वह उपयोगपूर्वक केवल आत्मा के साथ, स्व-स्वरूप के साथ स्वभाव के दर्शन करती है, तब वह आध्यात्मिक स्थिति के साथ जुड़ती है । इसलिए योग से अयोग-संवर तक पहुँचने का अव्यक्त निर्देश भी इसी सूत्र में दिया गया है। केवल आत्मा हो या केवल शरीर हो तो आनव, बन्ध या संसार - परिभ्रमण का प्रश्न नहीं उठता। दोनों हों, किन्तु दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं हो, तो भी आसव, बंध या परिभ्रमण का प्रश्न नहीं है। मगर आत्मा का जब मन-वचन-काया के साथ योग होता ( प्रवृत्त होने के लिए जुड़ता ) है, तब आम्रव और फिर बन्ध और तदनन्तर संसार - परिभ्रमण का प्रश्न उठता है । ३ १. (क) काय वाङ्मनः कर्मयोगः, स आस्रवः, शुभः पुण्यस्य अशुभः पापस्य । - तत्त्वार्थसूत्र, अ. ६, सू. १-४ (ख) तिविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा - मणजोए वइजोए कायजोए । - भगवतीसूत्र, श. १६, उ. १, सू. ५६४, स्थानांग, ठा. ३ २. (क) से आयावाई लोयावाई कम्मावाई किरियावाई । - आचारांग, श्रु. १, अ. १, उ. १, सू. ३ (ख) 'योग, प्रयोग, अयोग' (डॉ. साध्वी मुक्तिप्रभा जी ) से भावांश ग्रहण, पृ. ४ ३. ‘योग, प्रयोग, अयोग' (डॉ. साध्वीमुक्ति प्रभा जी ) से भावांश ग्रहण, पृ. ५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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