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________________ ॐ ११६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ __परन्तु ध्यान रहे, परिश्रम करने और काम में जुटने से तभी कामवासना नहीं जागेगी, जबकि उसे उस कार्य से मन में तृप्ति, आनन्द, सन्तोष और प्रसन्नता मिले। शरीर भले ही काम करने से थक जाये, मन न थके। विवाहितं वाचस्पति मिश्न ब्रह्मसूत्र पर टीका लिखने में इतने ओतप्रोत हो गरे थे कि उन्हें अपनी जीवनसंगिनी भामती का जरा भी ध्यान नहीं रहा और न है कामवासना का विचार आया। अब्रह्म सम्बन्धी कृत पापों का पुनः-पुनः स्मरण उचित नहीं . . इसी प्रकार एक बार गुरुदेव के समक्ष अपने कृत पापों का प्रायश्चित्त करने के लिए याद करो, बाद में बार-बार कामवासना के पापों को याद न करो। ब्रह्मचर्य की नौ बाड़ों में एक बाड़ है-पूर्वकृत कामवासना के पापों का स्मरण करने का निषेध। अतः अब्रह्मचर्य सम्बन्धी पापों का पुनः-पुनः स्मरण उचित नहीं है। सामायिक नामक मुनि का एक दृष्टान्त प्रसिद्ध है। उन्होंने पत्नी सहित मुनि दीक्षा ली थी। एक बार उन्हें अपनी साध्वी बनी हुई गृहस्थपक्षीया पत्नी को देखकर कामविकार जागा। पूर्वभुक्त अब्रह्मचर्य-सेवन याद आया। सामायिक मुनि के कामोद्भवरूप दुर्भाव का पता लगते ही साध्वी जी तो अनशन करके समाधिमरणपूर्वक सुगति में गई। परन्तु सामायिक मुनि ने मानसिक कामविकार के दोष का प्रायश्चित्त न करके अनार्यदेश में आर्द्रकुमार के रूप में जन्म लिया। यह अल्पविराधना का ही फल था। कामवासना दुष्कृत्य का तुरन्त या उसी दिन प्रतिक्रमण करो पापकृत्य का तुरन्त या उसी दिन आलोचन-प्रतिक्रमण कर लेने से पापकर्मों का बोझ नहीं बढ़ता। इसलिए अव्वल तो कामवासना उद्दीप्त हो तो तुरन्त मन से रोको उसका दमन या शमन स्वयं कर लो और फिर प्रतिक्रमण करके शुद्ध हो जाओ। गुरु-कृपा भी काम-शमन में सहायक ___ अन्त में कामविजयी बनने का एक मूल मंत्र है-सद्गुरु-कृपा। सद्गुरु-कृपा से कामवासना पर विजय आसान हो जाती है। बप्पभट्टसूरि एवं अभयदेवसूरि जी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। परन्तु गुरु-कृपा के अभाव में किया तप, त्याग सफल न होकर कभी-कभी कामवासना के कारण अधःपतन का निमित्त बन जाता है। तपस्वी कुलबालूक गुरु-कृपाविहीन होकर घोर तप करता था, परन्तु मागधिका वेश्या के जाल में फँसने से उसका अधःपतन हो गया। अतः कामविजयी बनने के लिए सद्गुरु-कृपा भी एक उपाय है। १. 'जो जे अमृतकुम्भ ढोलाय ना !' (मुनि श्री चन्द्रशेखरविजय जी म.) से भाव ग्रहण, पृ. १२४, ८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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