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ॐ ११० * कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
नरसी मेहता को पत्नी-वियोग का दुःख परमात्म-भक्ति से मिटा __ नरसी मेहता प्रायः परमात्म-भक्ति, नामजप, भजन आदि में लीन रहते थे। उनकी पत्नी का एकाएक देहान्त हो जाने से उनको वियोग का तनिक भी दुःख न हुआ। उन्होंने इसे कामवृत्ति से विरक्ति का निमित्त मानकर ये उद्गार निकाले
“भलुं थयुं भांगी जंजाल, सुखे भजशुं श्रीगोपाल।" यह काम-विरति का मार्गन्तरीकरण अथवा उदात्तीकरण है। त्रिविध सत्संग से कामवासना से विरति
कामवासना से विरति के लिए दूसरा उपाय है-सत्संग। पहले हम उपादान को सुदृढ़ एवं परिपक्व बनाने के उपायों पर प्रकाश डाल चुके हैं। अब परमात्म-भक्ति के बाद सत्संग नामक उपाय भी उपादान को तैयार करने का प्रबल साधन है। कामराग : के निमित्त आ पड़ने पर भी इन उपायों के आजमाने पर प्रायः पतन की संभावना नहीं रहती। सत्संग की त्रिवेणी में अध्यात्म-स्नान करने से आत्मा पवित्र भावों में रहती है, कामवासना की ओर मन नहीं जाता। त्रिविध सत्संग इस प्रकार हैं(१) पवित्र साधु-संतों का सत्संग, (२) आत्म-हितैषी पवित्र मित्रों का संग, (३) आत्म-शुद्धि के मार्ग की ओर ले जाने वाले पवित्र ग्रन्थों या पुस्तकों व शास्त्रों का स्वाध्याय। सर्वप्रथम पवित्र निःस्पृह साधु-सन्तों का समागम कामवासनाओं की जड़ उखाड़ने का अमोघ साधन है। साधु-सन्त स्वयं परमात्म-भक्ति एवं आत्म-साधना में लीन रहते हैं। उनके समागम में आने से वे सत् (अविनाशी आत्मा व परमात्मा) के साथ उसका सम्बन्ध स्थापित कर देते हैं। कदाचित् साधु-सन्तों का समागम शक्य न हो तो उन्हें खूब परीक्षा करके सन्मित्रों का समागम करना चाहिए, जो अपने साथी को पाप से निवृत्त करके हितकारी मार्ग में सत् के साथ जोड़ते हैं। सन्मित्र वही होता हो, जो स्वयं पाप से निवृत्त हो, सत् और शुभ में प्रवृत्त हो, आत्म-शुद्धि के लिए सतत प्रयत्नशील हो। अगर ऐसा सन्मित्र ढूँढ़ने पर भी न मिले तो सत्साहित्य का समागम करना चाहिए, जिनसे साधक का महापुरुषों, सद्गुरुओं और सन्मित्रों के साथ परोक्ष सम्पर्क हो जाता है और सत् के मार्ग की प्रेरणा मिलती है। कामवृत्ति-निरोध का अमोघ उपाय : भावनाओं से आत्मा को भावित करना
कामवृत्ति से विरति के लिए एक और आध्यात्मिक उपाय है-तीनों काल की विविध भावनाएँ या अनुप्रेक्षाएँ। ये भावनाएँ, अनुप्रेक्षाएँ तीनों काल की इसलिए बताई गई हैं कि पापक्रिया में प्रवृत्ति होने से पहले व्यक्ति विचार कर ले कि भूतकाल में किये हुए पापकर्मों का ही फल है कि मैं वर्तमान में वेदमोहनीय कर्म के वशीभूत
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