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________________ 8 कामवृत्ति से विरति की मीमांसा ® १०९ ॐ होते थे। बंगनरेश उनका शिष्य था। बंगनरेश अपना जन्म-दिन इन संन्यासी के सान्निध्य में मनाता था। इसलिए वे ब्रह्मचर्य से प्राप्त आकाश में उड्डयन शक्ति के बल पर वहाँ से एक ही दिवस में ढाका पहुँच जाते, दूसरे दिन वहाँ रहते और तीसरे दिन वापस उसी प्रकार उड़कर हिमालय पहुँच जाते। __ एक बार की बात है। त्रिलोकनाथ संन्यासी बंगनरेश के यहाँ थे। उस समय नरेश की अधेड़ वय की पत्नी के बदले उनकी राजकुमारी संन्यासी को भोजन परोसने के लिये आई। इससे पहले कभी नहीं, मगर आज ही राजकुमारी के रूप-लावण्य पर दृष्टिपात करते ही संन्यासी जी के मन में एक क्षण के लिए कामविकार पैदा हुआ, किन्तु तुरंत चेतते ही वह चला गया। संन्यासी के मन में इसका बहुत पश्चात्ताप हुआ। आज ही जब हिमालय वापस लौटने का समय हुआ और वे ज्यों ही उड़ने का प्रयत्न करने लगे, परन्तु आज उड़ा नहीं जा रहा था। वे इसका कारण समझ. गए। स्वयं को कोसते हुए बोले-“आज मेरा भाग्य फूट गया। मेरी शक्ति स्थानभ्रष्ट हो गई।" फलतः उन्हें पैदल चलकर कई दिनों में हिमालय पहुँचना पड़ा। कामराग से सर्वथा निवृत्ति के लिए आध्यात्मिक उपायों का आलम्बन अतः कामराग से सर्वथा निवृत्ति के लिए आध्यात्मिक उपायों का अवलम्बन लेना बहुत जरूरी है। कामवासना से मुक्ति पाने का सर्वप्रथम उपाय परमात्म-भक्ति है। कामवासना से अथवा पंचेन्द्रिय विषयभोगों से वासित मन को परमात्म-भक्ति में जोड़ने, नामस्मरण, कीर्तन, स्तुति, स्तवन, गुणगान, उपासना, ध्यान आदि के रूप में परमात्म-भक्ति करने से कामवासना का ऊर्चीकरण करने से काम-संवर (शुभ योग-संवर) हो सकता है। किसी प्रकार के सांसारिक स्वार्थ, मोह, लोभ या कामना से रहित होकर वीतराग भगवान के ध्यान में वीतराग बनने की अथवा आंशिक रूप से अशुभ राग दूर करने की क्षमता है। परमात्म-भक्ति से अकामसिद्धि और कषाय-नोकषाय नाश रामदुलारी परमात्म-भक्ति से पवित्र बनी रामदुलारी वेश्या थी, उसकी पुत्री को जन्मते ही मारकर अक्का ने उकरड़ी पर फेंक दी। इससे उसे बहुत ही आघात लगा। मानसिक रूप से संत्रस्त हो गई। एक दिन एक संन्यासी के प्रवचन में उक्त परमात्म-भक्ति के मधुर शब्द कानों में पड़े। उसे प्रभु-भक्ति का सुन्दर मार्ग मिल गया, जिससे दुःख, दैन्य, संक्लेश और कामवासना के सभी संस्कार लुप्त हो गए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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