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________________ ॐ १०६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ कामवासना के निमित्तों से दूर रहो, फिर भी वैसे निमित्त मिलते ही फौरन उससे दूर हट जाओ। मातृचिन्तन, शरीर की अशुचिता एवं अनित्यता का गहराई से चिन्तन करो। स्वयं को मृतक समझकर अब्रह्मचर्य-सेवन को रोक दो।। काम-संवर का चौथा उपाय : परमेष्ठीशरण ___ चौथा उपाय है-परमेष्ठीशरण-कदाचित् कामवासना का शमन और दमन मोहनीय कर्मोदयवश नहीं होता हो तो पूर्ण शुद्ध आत्मा अथवा पूर्ण शुद्धि की साधना करने वाले आत्माओं का शरण स्वीकार करके उनसे अनन्य श्रद्धाभक्तिपूर्वक प्रार्थना करो-भगवन् ! मैं आपकी शरण में आया हूँ। बार-बार सताती हुई कामवासनाओं से मुझे बचाइए। आपकी कृपा के बिना मुझे कामवासना से छुटकारा नहीं हो सकता। कारुण्यभाव से मेरी इससे रक्षा करो। ये उद्गार हृदय से, अन्तर के रोम-रोम से, साश्रुनयनपूर्वक आतुरतापूर्वक प्रकट होने चाहिए। ऐसी प्रार्थना कामवासना के बल को एकदम तोड़ डालती है। काम-संवर का पंचम उपाय : दुष्कृतगर्दा, आलोचना, निन्दना पाँचवाँ उपाय है-दुष्कृतगर्दा-मान लो, किसी व्यक्ति से अज्ञानता, मोह या प्रमादवश पूर्व-जन्मों में या इस जन्म में कामवासना-सेवन का दोष एक या अनेक बार हो गया हो और अब वह संवर और निर्जरा के सहारे उससे मुक्त होकर आत्म-शुद्धि करना चाहता हो, तो उसका भी उपाय है-दुष्कृतगरे। इनसे वेदमोहनीय कर्म की निर्जरा होने से आत्म-शुद्धि का मार्ग प्रशस्त गर्हा के साथ आलोचना, आत्म-निन्दना (पश्चात्ताप) भी सम्मिलित है। गम्भीर एवं वात्सल्य मूर्ति सद्गुरु के समक्ष अपना दिल खोलकर जैसा भी, जो भी, जिस प्रकार कामदोष हुआ हो, उसे प्रगट करना आलोचना है। गर्हा है-गुरुजनों की साक्षी से समाज के समक्ष जाहिर में अपने दोषों को पश्चात्तापपूर्वक प्रगट करना। तथा निन्दना है-कई छोटे-छोटे कामदोषों का आत्म-निन्दापूर्वक पश्चात्ताप करना तथा भविष्य में न करने का संकल्प करना। आलोचना या गर्दा केवल शाब्दिक निवेदनरूप नहीं होनी चाहिए, प्रत्युत अन्तर के तार-तार रुदनपूर्वक झनझना उठे, ऐसे अपार पश्चात्तापपूर्वक होनी चाहिए। ऐसी आलोचना और गर्दा से व्यक्ति आराधक हो सकता है, कामवासनाजनक पापकर्म भी शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। आत्म-शुद्धि भी शीघ्र हो जाती है। कई लोग ऐसे पापकृत्यों की आलोचना-गर्दा करने के बाद उनका त्याग करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध या संकल्पबद्ध होकर भी तथा गुरु से प्रायश्चित्त ग्रहण करके भी पुनः उस प्रतिज्ञा या संकल्प को तोड़ देते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। जाहिर में आलोचना एवं गर्दा के बाद तथा प्रायश्चित्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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