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________________ ॐ कामवृत्ति से विरति की मीमांसा ॐ १०७ 8 ग्रहण कर लेने के बाद भी कई बार लोग उन्हें हिकारत भरी दृष्टि से देखते हैं। उस पर विचलित न होकर समभाव से निन्दा, बदनामी या अपकीर्ति या फटकार के विष को पी जाना चाहिए। उससे पापकर्मों की शीघ्र निर्जरा हो जाती है। आत्म-निन्दना एवं गर्हा के सुपरिणाम एक नगर में सगी माँ के साथ पुत्र का अनाचार-सेवन हो गया। बाद में दोनों को अत्यन्त पश्चात्ताप हुआ। दोनों ने जाहिर में गुरुदेव के समक्ष अपने दुष्कृत्य को प्रगट करके, प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि की। लोगों ने उन्हें फटकारा, निन्दा-घृणा बरसाई। उन दोनों ने भी अपने को धिक्कारा। समभावपूर्वक सहने के कारण दोनों के सिर्फ दो भव ही बाकी रह गए। . उत्कृष्ट पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त से आत्मा शुद्ध हो गई रोते हुए संत की एक हृदयद्रावक कथा इस विषय में बहुत ही प्रेरणादायी है। किशोरवय में अज्ञानतावश इसने अपनी सहोदर बहन के साथ अनाचार-सेवन किया। परन्तु बाद में इस पापकृत्य से बड़ा भारी आघात पहुँचा। वह अपने घर से निकल पड़ा और अकेला चल पड़ा अज्ञात दिशा की ओर। प्रभु से हाथ जोड़कर क्षमा माँगने के अतिरिक्त जो भी मनुष्य, पशु, वृक्ष, नदी, तालाब मिलता सबको रोते-रोते कहता-“मेरी भूल हो गई ! मुझे माफ करो। हे प्रकृति ! मैंने तेरे अनुशासन-विरुद्ध काम किया है, भयंकर पाप किया है।" कहते हैं-यों रोता-रोता वह एक टेकरी पर पहुँच गया। वहाँ भी हर समय रुदन करता रहता। बारह वर्ष हो गए वहाँ रहते-रहते। उसकी आत्मा पवित्र हो चुकी थी। पास के गाँव के एक कुष्ट रोगी ने उसे संत समझकर उसके चरण स्पर्श किये। दूसरे ही क्षण उसका कुष्ट रोग नष्ट हो गया। यह है सच्चे मन से की गई गर्दा का चमत्कार ! काम-संवर का छठा उपाय-सुकृतानुमोदना छठा उपाय है-सुकृतानुमोदना। जो आत्मा जम्बूस्वामी, चन्दनबाला, स्थूलिभद्र, विजय-विजया दम्पति आदि उत्तम, मध्यम एवं जघन्य कोटि के कामविजयी हुए हैं या काम-संवर-निर्जरा की साधना करते हैं, उनके उन सुकृतों का अनुमोदन, समर्थन और प्रशंसन करना चाहिए और मन में उत्साहपूर्वक, निराशा त्याग करके दृढ़ निश्चय करना चाहिए कि वेदमोहनीय (कार्मवृत्ति) कर्म का संवर या निर्जरण (आंशिक कर्मक्षय) करना अशक्य नहीं है, मैं भी इस मार्ग पर दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ सकता हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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