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8 १०४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ®
को विचार आया। रामकृष्ण एक दिन एकान्त में बैठे थे। दोपहर का समय ! माथुर बाबू ने इसी मौके पर कुछ रूपवती वारांगनाएँ रामकृष्ण के पास भेजीं। वे एकदम बेधड़क होकर उनके कक्ष में प्रविष्ट हो गईं और दरवाजा बंद कर लिया। फिर वे अपनी कामवर्धक लीलाएँ करने लगीं। रामकृष्ण ने देखा उन्हें यह सब बातें अरुचिकर एवं वीभत्स लगीं। वे झटपट सँभल गए। उन्हें उन सब में माँ (काली माता) के ही दर्शन हुए और वे भावावेश में आकर जोर-जोर से बोलने लगे-माँ, ओ ब्रह्ममयी माँ ! आनन्दमयी माँ ! साथ ही मातृस्मरण एवं मातृवात्सल्य के कारण रामकृष्ण की आँखों से अश्रुधारा बह चली। गहरे अन्तर से, सहजरूप से उठने वाले मातृत्व के निर्दोष वात्सल्यपूर्ण शब्दों से उन सुन्दरियों का हृदय कम्पायमान हो गया। वे सब भयविह्वल होकर उन्हें नमस्कार करके क्षमा माँगकर विदा हो गईं। विभूतानन्द जी ने तुरन्त काम-संवर कर लिया
स्वामी विवेकानन्द के एक शिष्य का नाम था विभूतानन्द जी। उन्होंने एक ग्राम में चातुर्मास किया। चातुर्मास के बाद जब वहाँ से प्रस्थान किया तो छह मील दूर दूसरे गाँव तक अनेक नर-नारी उन्हें पहुँचाने गए और नमस्कार करके वापस लौट गए। एक महिला, जिसके मन में चातुर्मासकाल में उनके प्रति कामवासना जाग उठी थी, वह वापस नहीं लौटी। स्वामी जी जब अपने निवास स्थान के कमरे में अंदर प्रवेश करने लगे, तो वह भी तुरन्त उनके पीछे ही प्रविष्ट हो गई और भीतर से द्वार बंद कर लिया। फिर वह विकृत चेष्टा करने लगी। विभूतानन्द जी यह माजरा देखकर तुरन्त सँभल गए। अगर उनका उपादान शुद्ध एवं सुदृढ़ निर्विकार न होता तो स्खलन होते देर न लगती। परन्तु उन्होंने निष्ठापूर्वक ब्रह्मचर्य-साधना की हुई थी। विभूतानन्द जी उस महिला के समक्ष मातृभाव से वेधक दृष्टि से देखने लगे। उनके नेत्रों से निःसृत तेजस्वितापूर्ण वात्सल्य धारा से वह महिला काँप उठी। उसी समय उन्होंने उससे कहा-“माँ ! तुमको कुछ लेकर ही जाना पड़ेगा।" इन शब्दों में ऐसी प्रचण्ड शक्ति थी कि उक्त स्त्री का कामविकार एकदम शान्त हो गया। कामविजेता स्थूलिभद्र उत्तेजक निमित्तों के मिलने पर भी न डिगे
कामविजेता मुनिवर स्थूलिभद्र जी का उपादान इतना शुद्ध, सुदृढ़ और निर्विकार था कि काम के घर में चार-चार मास रहने पर भी तथा रूपकोशा द्वारा कामोत्तेजक दृश्य, खाद्य, श्रव्य विषयों का वातावरण उपस्थित करने पर भी उनके किसी रोम में भी कामविकार नहीं जागा। वारांगना रूपकोशा को भी उन्होंने वीरांगना बना दिया।
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