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विपाक पर आधारित चार कर्मप्रकृतियाँ ७९
इन्हें पुद्गल-विपाकी मानें या जीवविपाकी ? रति और अरति मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं, जो जीवविपाकी में परिगणित की गई है; किन्तु इस सम्बन्ध में एक शंका उपस्थित की गई है कि कांटे आदि अनिष्ट पुद्गलों के संयोग से अरति का विपाकोदय होता है; तथा चन्दन, पुष्पमाला आदि इष्ट पुद्गलों के संयोग से रतिमोहनीय का उदय होता है। ऐसी स्थिति में इन दोनों प्रकृतियों को जीवविपाकी न कहकर; पुद्गल-विपाकी क्यों नहीं कहा जाए?
इसका समाधान यह है कि कांटा आदि पुद्गलों के संसर्ग के बिना भी इनका उदय देखा जाता है। चन्दन, कंटक आदि के सम्पर्क के बिना भी प्रिय-अप्रिय वस्तु के स्मरण, दर्शन आदि से रति-अरति मोहकर्म का अनुभव होता है। पुद्गलविपाकी तो उसे कहते हैं, जिसका उदय पुद्गल के संसर्ग के बिना होता ही न हो; किन्तु रति-अरति कर्म का उदय जैसे पुद्गलों के संसर्ग से होता है, वैसे ही उनके संसर्ग के बिना भी होता है। अतः पुद्गलों के सम्पर्क के बिना भी रति-अरति दोनों के उदय में आने के कारण, उन्हें पुद्गल-विपाकी न मानकर जीव-विपाकी ही माना गया है।
इसी प्रकार क्रोध आदि कषायों और हास्य आदि नौ नोकषायों को भी पौद्गलिक या पुद्गल-संयोगजनित होने पर भी जीव-विपाकी समझनी चाहिए, पुद्गल-विपाकी नहीं। जैसे-तिरस्कार करने वाले शब्द पौद्गलिक होते हैं, जिन्हें सुनकर क्रोध, मान आदि का उदय होता है; वैसे ही पुदगलों का संसर्ग हुए बिना भी स्मरण, श्रवण, मनन आदि के द्वारा भी उनका उदय हो जाता है। अतः क्रोधादि कषायों और हास्यादि नोकषायों को पुद्गलविपाकी न मानकर जीवविपाकी कर्मप्रकृतियाँ ही समझनी चाहिए। ..निष्कर्ष यह है कि यदि आत्मार्थी साधक विपाक पर आधारित इन चारों प्रकार की कर्मप्रकृतियों को समझ ले और कर्मविज्ञान की तह में जाकर विपाक के कारणों और विपाक (उदय) में आने से पहले, उनका उदात्तीकरण, संक्रमण या उत्कर्षण के रहस्यों को हृदयंगम करले तो बहुत कुछ परिवर्तन किया जा सकता है।
-पंचसंग्रह १६४
१. (क) अरइ-रईण उदओ, किनभवे पोग्गलं संप्पप।
___ अपुढेहिं वि किन्नो, एवं कोहाइयाणं पि ॥ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन (मरुधरकेसरीजी) से पृ. ७९, ८० (ग) संपप्पं जीयकाले उदयं काओ न जंति पगईओ।
एवं छिणमोहहेउं आसज्ज विसेययं नत्थि ।।
-पंचसंग्रह ३/४९
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