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७८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
पुद्गलविपाकी कर्मप्रकृतियाँ: स्वरूप और प्रकार
जो कर्मप्रकृतियाँ शरीररूप में परिणत हुए पुद्गल - परमाणुओं में ही अपना फल देती हैं, वे पुद्गलविपाकी कर्मप्रकृतियाँ कहलाती हैं। जैसे कि निर्माण - नामकर्म के उदय से शरीररूप में परिणत पुद्गल - परमाणुओं में अंग और उपांग का नियमन होता है। स्थिरनामकर्म के उदय से दांत आदि स्थिर तथा अस्थिर नामकर्म के उदय से जिह्वा आदि अस्थिर होते हैं । शुभनामकर्म के उदय से मस्तक, नेत्र आदि शुभ और अशुभनामकर्म के उदय से पैर, गुदा आदि अवयव अशुभ कहलाते हैं। शरीर नामकर्म के उदय से गृहीत पुद्गल शरीररूप में परिणत होते हैं और अंगोपांग नामकर्म के उदय से शरीर में अंग और उपांग का विभाग होता है। संस्थान नामकर्म के उदय से शरीर का आकार बनता है, और संहनन नामकर्म के उदय से अस्थियों का बन्धन - विशेष होता है। इसी प्रकार उपघात, साधारण, प्रत्येक, उद्योतं, आतप आदि नामकर्म की प्रकृतियाँ भी शरीररूप में परिणत हुए पुद्गलों में ही अपना फल देती हैं। इसलिए निर्माण आदि से लेकर पराघात - पर्यन्त कुल छत्तीस प्रकृतियाँ पुद्गल विपाकी हैं।
कर्मग्रन्थानुसार पुद्गलविपाकी छत्तीस कर्मप्रकृतियाँ
कर्मग्रन्थ के अनुसार पुद्गल - विपाकी कर्म - प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-नामकर्म की बारह ध्रुवोदयी (ध्रुवबन्धिनी) प्रकृतियाँ (निर्माण, स्थिर, अस्थिर, अगुरुलघु, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण और वर्णचतुष्क), तनुचतुष्क (तैजस और कार्मण शरीर को छोड़कर औदारिक आदि तीन शरीर, तीन अंगोपांग, छह संस्थान और छह संहनन), उपघात, साधारण, प्रत्येक और उद्योत - त्रिक (उद्योत, आतप और पराघात); ये सब मिलाकर छत्तीस कर्मप्रकृतियाँ पुद्गल - विपाकिनी हैं।
(क) कर्मग्रन्थ भा. ५, विवेचन, (मरुधरकेसरीजी), पृ. ७७, ७८ (ख) नाम-१ - धुवोदय- चउतणुवघाय-साहारणियर-जोयतिगं । पुग्गलविवागि
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(ग) निर्माण से लेकर वर्णचतुष्क तक ध्रुवोदयी प्रकृतियाँ १२ हैं, जिनमें तैजसकार्मण शरीर भी हैं । - पंचम कर्मग्रन्थ गा. २१
२. गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. ४७-४९ में भी विपाकी कर्मप्रकृतियों को गिनाया गया है। किन्तु दोनों ग्रन्थों में उल्लिखित पुद्गलविपाकी कर्मप्रकृतियों की संख्या में अन्तर है । कर्मग्रन्थ में उनकी संख्या ३६ ही बतलाई हैं। जबकि गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उनकी संख्या ६२ कही है। इस अन्तर का कारण यह है कि कर्मग्रन्थ में ५ बन्धन और ५ संघात प्रकृतियों को छोड़ दिया गया है। तथा वर्णचतुष्क से वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, ये ४ मूलभेद ही लिये गए हैं। उत्तरभेद कुल २० होते हैं। उनमें से ४ भेद कम करने से १६ भेद वर्णादि के नहीं लिये गए। इसलिए कर्मकाण्ड के अनुसार ६२ प्रकृतियों में से १०+१६=२६ प्रकृतियाँ कम करने से ६२ - २६ = ३६ प्रकृतियाँ ही शेष रहती हैं ।" - कर्मग्रन्थ भा. ५ पादटिप्पण, पृ. ७८
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