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विपाक पर आधारित चार कर्मप्रकृतियाँ ७७
वर्तमान भव को त्याग कर अपने योग्य भव को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक आयुकर्म का उदय नहीं होता। अतः परभव में उदययोग्य होने से आयुकर्म की प्रकृतियाँ भवविपाकिनी कही जाती हैं।
गतिनामकर्म की प्रकृतियाँ भवविपाकिनी नहीं हैं यहाँ एक शंका होती है कि गति-नामकर्म भी अपने योग्य भव के प्राप्त होने पर ही उदय में आता है, ऐसी स्थिति में उसे भवविपाकी क्यों नहीं कहा गया? इसका समाधान यह है कि आयुकर्म और गतिकर्म के विपाक में बहुत अन्तर है। आयुकर्म तो जिस भव के योग्य बांधा जाता है, नियम से उसी भव में अपना फल देता है। जैसे-मनुष्यायु का उदय मनुष्यभव में ही हो सकता है; अन्य भवों में नहीं। अतः किसी भी भव में योग्य आयुकर्म का बन्ध हो जाने के पश्चात् जीव को उस भव में अवश्य ही जन्म लेना पड़ता है। जबकि गतिनामकर्म में ऐसी बात नहीं है। विभिन्न परभवों के योग्य बंधी हुई गतियों का उसी भव में संक्रमण आदि के द्वारा उदय हो सकता है। जैसे-मोक्षगामी चरमशरीरी जीव के परभव के योग्य बंधी हुई गतियों (गति-नामकर्म-प्रकृतियों) का उसी भव में क्षय हो जाता है। इसलिये गतिनामकर्म भव का नियामक नहीं है। इस कारण वह भव-विपाकी कर्मप्रकृति नहीं है।२
क्षेत्रविपाकी ही क्यों, जीवविपाकी क्यों नहीं? - एक शंका और-विग्रहगति के बिना भी संक्रमण के द्वारा आनुपूर्वी का उदय होता है, अतः उसे क्षेत्रविपाकी न मानकर जीव-विपाकी क्यों न माना जाए ? इसका समाधान यह है-संक्रमण के द्वारा विग्रहगति के बिना भी आनुपूर्वी का उदय होता है, किन्तु जैसे उसका क्षेत्र की प्रधानता से विपाक होता है, वैसे अन्य किसी भी कर्मप्रकृति का नहीं होता।
१. (क) आउ-चउरो भवविवागा। -कर्मग्रन्थ भा. ५, गा. २० -- (ख) पंचम कर्मग्रन्थ, विवेचन, (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री), पृ. ५५
२. (क) वही, भा. ५, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री), प्र. ५५, ५६ ___ (ख) आउव्व भव विवागा, गई न आउस्स परभवे-जम्हाई।
-- नो सव्वहा वि उदओ, गईण पुण संकमेणत्थि ॥ -पंचसंग्रह १६५ ३. (क) आणुपुव्वीणं उदओ किं संकमणेण नत्थि संते वि।
यह खेलहेज्जो लामा, र तह अनरमा साविकण्हेर -रंक्संसह १६६ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५, पादटिप्पण, पृ. ५४
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