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________________ ८०. कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ कर्मप्रकृति संख्या क्षेत्रविपाकी भवविपाकी जीवविपाकी पुद्गलविपाकी ओघ १२२ ४ ४ ७८ ३६ ज्ञानावरणीय 4 दर्शनावरणीय ९ २ २८ वेदनीय मोहनीय कर्मप्रकृतियों के क्षेत्रविपाकी आदि भेदों का कोष्ठक आयु नामकर्म ४ ६७ गोत्रकर्म २ अन्तरायकर्म ५ कर्मप्रकृतियाँ कुल o Jain Education International ० o ० ० ४ o o ४ o ० o o ४ o 0 o ४ ५ ९ २ २८ For Personal & Private Use Only 0 २७ २ ५ -७८ 0 " ० o ० O ३६ 0 कर्मविज्ञान का यह बहुत बड़ा आश्वासन है, प्रत्येक मुमुक्षु एवं आत्मार्थी साधक को कि बन्ध की पूर्वोक्त दशविध परिवर्तनीय अवस्थाओं के माध्यम से तुम अपने दुर्भाग्य को सद्भाग्य में, दुर्विपाक को सुविपाक में, अशुभकर्म को शुभकर्म में बदल सकते हो, अथवा रत्नत्रयादि की साधना के द्वारा शुभाशुभ विपाक के फल देने से पहले ही उदीरणा करके उक्त बद्धकर्म का क्षय कर सकते हो। ० ३६=१२२१ साधना की एक प्रक्रिया यह भी है कि जो विपाक उदय में आने वाले हैं, उनसे पहले ही व्यक्ति सावधान हो जाए, जागरूक हो जाए तो विपाक को बदल सकता है, अथवा वे विपाक आने ही न पाएँ, इस प्रकार की साधना ( कर्मोदीरणा करके समभाव से भोगने की साधना ) कर सकता है। विपाक का ज्ञाता व्यक्ति के कदाचित् प्रमादवश, अज्ञानवश या असावधानी से कर्म आकर चिपक गए, और वह जानता है कि ये कर्म विपाक में आने पर अमुक प्रकार का फल देने वाले हैं, अथवा अमुक बद्धकर्मों का यह विपाक काल चल रहा है, यह जानते ही जागृत हो जाए, उसकी प्रमादनिद्रा टूट जाए तो उसके लिए इन (विपाकों) की शक्ति में परिवर्तन लाना कोई आश्चर्यजनक नहीं है। उन बद्धकर्मों की शक्ति में ऐसा परिवर्तन लाए कि उनका विपाक ही न हो सके। यह कार्य असम्भव नहीं, सम्भव है; असाध्य नहीं, साध्य है। यदि कर्म के हेतुओं, अथवा बद्धकर्मों में कोई भी परिवर्तन नहीं किया जा सकता १. पंचम कर्मग्रन्थ ( मरुधरकेसरीजी), पृ. ८२ www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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