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________________ ६२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ अर्थात् जो प्रकृतियाँ अपने बन्ध, उदय और बंधोदय के लिए दूसरी प्रकृतियों के बंध, उदय, बंधोदय को रोक देती हैं, आगे बढ़ने नहीं देतीं वे परावर्तमाना कर्मप्रकृतियाँ कहलाती हैं। परावर्तमाना प्रकृतियों की संख्या कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने कर्मग्रन्थ आदि में वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र, इन (अघाती) कर्मों की अधिकांश प्रकृतियों के साथ घातिकर्म-दर्शनावरण एवं मोहनीय की भी प्रकृतियाँ गिनाई हैं। जिनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं- ... . (१) दर्शनावरण की पांच-निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानर्द्धि। (२) वेदनीय की दो-सातावेदनीय और असातावेदनीय। (३) मोहनीय की तेईस-अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क, संज्वलनकषाय-चतुष्क और हास्य रति, शोक अरति, स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद। (४) आयुकर्म की चार-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु। - (५) नामकर्म की पचपन प्रकृतियाँ-शरीराष्टक की ३३ प्रकृतियाँ (औदारिक, वैक्रिय, आहारक शरीर, औदारिक अंगोपांग आदि तीन अंगोपांग, छह संस्थान, छह संहनन, एकेन्द्रिय आदि पांच जति, नरकगति आदि चार गतियाँ, शुभ-अशुभ विहायोगति, चार आनुपूर्वी), आतप, उद्योत, त्रसदशक और स्थावरदशक, ये कुल मिलाकर ३३+२२=५५ प्रकृतियाँ। (६) गोत्रकर्म की दो-उच्चगोत्र और नीचगोत्र। इस प्रकार ५+२+२३+४+५५+२=९१ प्रकृतियाँ परावर्तमाना हैं। इनमें से अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क आदि सोलह कषाय और पांच निद्राएँ ध्रुवबन्धिनी होने से, ये बंधदशा में तो दूसरी प्रकृतियों का उपरोध नहीं करती, तथापि अपने उदयकाल में अपनी सजातीय प्रकृति के उदय को रोककर प्रवृत्त होती हैं। अतः परावर्तमाना हैं। क्योंकि क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों में से एक समय में एक ही कषाय का उदय होता है, इसी तरह पांच प्रकार की निद्राओं में से किसी एक निद्रा का उदय होते हुए शेष चार निद्राओं का उदय नहीं होता। यद्यपि - १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ, गा. १८, १९ विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ६८, ७० (ख) मोक्षप्रकाश (धनमुनिजी), पृ. १२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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