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६० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
ग्यारहवें गुणस्थान में उसकी सत्ता अध्रुव होती है; क्योंकि जिस मिथ्यादृष्टि जीव ने मिश्रप्रकृति की उद्वलना कर दी है, उसके तथा अनादि-मिथ्यादृष्टि के मिश्रप्रकृति की सत्ता नहीं होती, शेष मिथ्यादृष्टि जीवों के उसकी सत्ता होती है। इसी प्रकार चतुर्थ आदि ८ गुणस्थानों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों के मिश्रप्रकृति नहीं होती, शेष जीवों के होती है।
अनन्तानुबन्धी कषाय की सत्ता पहले और दूसरे गुणस्थान में ध्रुव होती है; क्योंकि इन गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध अवश्य होता है। जिसका बन्ध होता है, उसकी सत्ता अवश्य होती ही है। शेष तीसरे आदि ९ गुणस्थानों में उसकी सत्ता अध्रुव होती है; क्योंकि जिस जीव ने अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन कर दिया है, उसके अनन्तानुबन्धी की सत्ता नहीं होती, शेष जीवों के उसकी सत्ता होती है।
मिथ्यात्व आदि सभी गुणस्थानों में आहारक सप्तक (आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, आहारक संघातन, आहारक-आहारकबन्धन, आहारक-तैजस बन्धन, आहारक-कार्मणबन्धन और आहारक-तैजस-कार्मण बन्धन इन ७ प्रकृतियों) में अस्तित्व (सत्त्व या सत्ता) विकल्प से होता है। दूसरे और तीसरे गुणस्थान के सिवाय शेष सभी गुणस्थानों में तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता भी विकल्प से होती है। तीर्थंकर-नामकर्म और साहारक सप्तक की सत्ता जिस जीव के होती है, वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में भी आता है। तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति वाला कोई जीव यदि मिथ्यात्व में आता है तो वह सिर्फ अन्तर्मुहूर्त के लिए ही आता है।
तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध चौथे से लेकर आठवें गुणस्थान के छठवें भाग तक किसी-किसी विशुद्ध सम्यग्दृष्टि के होता है। इन गुणस्थानों में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध करने वाला जीव ऊपर के गुणस्थानों में जाता है तो उसमें तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता पाई जाती है, यदि वह जीव अविशुद्ध परिणामों के कारण नीचे के गुणस्थानों में आता है, तो मिथ्यात्व में ही आता है, सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में नहीं। अतः दूसरे तीसरे गुणस्थान को छोड़कर शेष १२ गुणस्थानों में तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता पाई जाती है। २-३ गुणस्थान में तो सत्ता ही नहीं है, शेष गुणस्थानों में सब के नहीं पाई जाती। अतः इसकी सत्ता अधूव जाननी चाहिए।
मोक्ष की प्राप्ति ही जीवन का अन्तिम ध्येय है, मोक्ष प्राप्ति का प्रथम उपाय सम्यक्त्व है। उसी के परम पुरुषार्थ पर मोक्ष निर्भर है। अतः जीवन का उत्थान सम्यक्त्व और पतन मिथ्यात्व से होने से उससे सम्बद्ध १५ प्रकृतियों का यहाँ विशेष रूप से विचार किया गया है।
१. पंचम कर्मग्रन्थ, ११, १२ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से सारांशग्रहण, पृ. २४ से ४१
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