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________________ ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय-सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ ५९ उपदेशश्रवणलब्धि और प्रायोग्यलब्धि अथवा पंचेन्द्रिय, संज्ञी और पर्याप्तक लब्धि) से युक्त होता हआ करणलब्धि करता है। करण का अर्थ है-परिणाम और लब्धि का अर्थ है-प्राप्ति या शक्ति। अर्थात्-जीव को उस समय तक ऐसे-ऐसे उत्कृष्ट परिणामों की प्राप्ति होती है, जो अनादि काल से पड़ी हुई मिथ्यात्व-ग्रन्थि (गांठ) का भेदन करने में वह समर्थ हो जाता है। वे करण या परिणाम तीन प्रकार के होते हैं-यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण। इस क्रिया के पूर्ण होने के पश्चात् मिथ्यात्व की प्रथम स्थिति भी पूरी हो जाती है। उसके पूरी होते ही अन्तर्मुहूर्त काल के लिए मिथ्यात्व के उदय का अभाव हो जाने से प्रथमोपशम-सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है। इस उपशमसम्यक्त्व के प्रकट होने के पहले समय में, अर्थात्-मिथ्यात्वमोहनीय कर्म की प्रथम स्थिति के अन्तिम समय में द्वितीय स्थिति में वर्तमान मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के दलिक अनुभाग की तरतमता को लेकर तीन रूप में विभक्त हो जाते हैं-शुद्ध, अर्धशुद्ध और अशुद्ध। प्रथम कर्मग्रन्थ में इनका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है-शुद्ध दलिकों को सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं, अर्धशुद्ध दलिकों को मिश्र या सम्यमिथ्यात्व-मोहनीय कहते हैं और अशुद्ध दलिकों को मिथ्यात्व-मोहनीय। इस प्रकार प्रथमोपशम सम्यक्त्व के माहात्म्य से एक मिथ्यात्व-मोहनीय-प्रकृति त्रिरूपा हो जाती है और ऐसा होने से सत्ता और उदय में दो प्रकृतियाँ बढ़ जाती है। मिश्र-प्रकृति और अनन्तानुबन्धी कषाय की सत्ता का विचार दूसरे सास्वादन और तीसरे मिश्र-गुणस्थान में मिश्रमोहनीय की प्रकृति अवश्य पाई जाती है, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय मिथ्यात्व के तीन पुंज हो जाते हैं। और उस सम्यक्त्व के काल में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक ६ आवलिका प्रमाण काल शेष रह जाता है, तब जीव सास्वादन गुणस्थान ..को प्राप्त होता है। अतः उस समय जीव के मिश्रमोहनीय प्रकृति की सत्ता अवश्य होती है। तथा मिश्रमोहनीय सत्ता और उदय के बिना मिश्रदृष्टि नामक तीसरा गुणस्थान हो ही नहीं सकता। अतः तीसरे गुणस्थान में मिश्र प्रकृति की ध्रुवसत्ता जाननी चाहिए। शेष पहले, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें, नौवें, दसवें और १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ गा. १० विवेचन, पृ. २६ से ३३ तक सारांश ग्रहण (ख) दंसणमोहं तिविहं सम्मं मीसं तहेव मिच्छत्तं। सुद्धं अद्धविसुद्धं अविसुद्धं तं हवइ कमसो॥ १४॥ -प्रथम कर्मग्रन्थ (ग) इन करणों का विशेष स्वरूप जानने के लिए देखें-कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह का उपशमनाकरण तथा लब्धिसार गा. ३४-८९, गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ४७-५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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