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________________ ५८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ निगोदिया जीवों के नहीं होता तथा उद्वलन हो जाने पर तेजस्काय और वायुकाय के भी नहीं होता। इन कारणों से पूर्वोक्त २८ प्रकृतियाँ अध्रुवसत्ताका कही गई हैं। गुणस्थानों में कतिपय प्रकृतियों की ध्रुव-अध्रुवसत्ता प्ररूपणा आदि के तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्व-मोहनीय की सत्ता अवश्यमेव होती है। तथा अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान तक ८ गुणस्थानों में मिथ्यात्व की सत्ता भजनीय (वैकल्पिक) है। अर्थात्-किसी के होती है, किसी के नहीं होती। सास्वादन नामक द्वितीय गुणस्थान में सम्यक्त्व-मोहनीय की सत्ता नियम से (अवश्य) होती है; किन्तु सास्वादन के सिवाय मिथ्यादृष्टि आदि दश गुणस्थानों में सम्यक्त्वमोहनीय की सत्ता विकल्प से है। पंचम कर्मग्रन्थ में मिथ्यात्वमोहनीय और सम्यक्त्व-मोहनीय के अस्तित्व (सत्ता) का विचार गुणस्थानों में करते हुए, ऊपर कहा गया है कि किस गुणस्थान में ये नियम से रहती हैं, और किस गुणस्थान में अनियम से? अतः इस विषय में विशेष विवेचना करना उपयुक्त नहीं।२ बन्ध के बिना सत्ता और उदय क्यों और कैसे? : एक अनुचिन्तन .. एक प्रश्न और उपस्थित होता है, इन मिथ्यात्वमोहनीय आदि त्रिविध प्रकृतियों के सम्बन्ध में, वह इस प्रकार है कि कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता के सम्बन्ध में एक सामान्य नियम यह है कि जिन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, बन्ध होने के पश्चात् वे ही कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं, और उदयकाल आने पर उनका ही उदय होता है। व्यावहारिक दृष्टि से भी सोचा जाए तो भी यह तथ्य युक्तिसंगत है कि जिन कर्मों को बांधा ही नहीं, वे सत्ता और उदय में कैसे आ सकते हैं ? किन्तु कर्मविज्ञान में इस सामान्यनियम का भी एक अपवाद है। दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों में से एक मिथ्यात्वमोहनीय का ही बन्ध होता है। शेष दो प्रकृतियाँ-सम्यक्त्व-मोहनीय और मिन-मोहनीय, बन्ध के बिना ही उदय में आती हैं; इसका कारण यह है कि जब कोई अनादि-मिथ्यादृष्टि जीव जब पहली बार सम्यक्त्व ग्रहण करने के अभिमुख होता है, तब तीन लब्धियों (उपशमलब्धि, १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ, गा. ८, ९ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) (ख) कर्मप्रकृति (यशोविजय टीका), एवं पंचसंग्रह में १८ प्रकृतियाँ ही अध्रुवसत्ताका कही गईं हैं। २. (क) पंचम कर्मग्रन्थ गा. १० विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. २५, २६ (ख) पढम तिगुणेसु मिच्छं नियमा अजयाइ-अट्ठगे भजं। सासाणे खलु संतं मिच्छाइ-दसगे वा॥ १० ॥ ___-पंचम कर्मग्रन्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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