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________________ ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय-सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ ५७ में से वर्णचतुष्क और तैजस-कार्मण, इन ६ प्रकृतियों को इसलिए कम कर दिया है, कि उन्हें गाथा के प्रारम्भ में ही अलग से गिना गया है। वैसे तो जो ध्रुवबन्धिनी हैं, उन्हें ध्रुवसत्ताका होना ही चाहिये, क्योंकि जिनका बन्ध सर्वदा होता है, उनकी सत्ता भी सर्वदा रहनी ही चाहिये। तीनों वेदों का बन्ध बारी-बारी से होता रहता है। आकृतित्रिक अर्थात्-६ संस्थान ६ संहनन और ५ जाति भी पूर्ववत् ध्रुवसत्ताक हैं। परस्पर में कर्मदलों का संक्रमण होते रहने की अपेक्षा से वेदनीयद्विक भी ध्रुवसत्ताक है। हास्य, रति, अरति और शोक की सत्ता नौवें गुणस्थान तक सभी जीवों के होती है। औदारिक सप्तक की सत्ता भी सर्वदा रहती है। सम्यक्त्व की प्राप्ति होने से पहले सभी जीवों के ये प्रकृतियाँ सदैव रहती हैं, इसलिए इन्हें ध्रुवसत्ताका कहते हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय प्रकृतियाँ ध्रुवसत्ताका क्यों, अध्रुवसत्ताका क्यों नहीं ? यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीवों के कषाय का उद्वलन होता है, इसलिए अनन्तानुबन्धी कषाय को ध्रुवसत्ताक न कहकर अध्रुवसत्ताक कहना चाहिए, परन्तु कर्मग्रन्थ में स्पष्ट कहा है कि अध्रुवसत्ताकता का विचार उन्हीं जीवों की अपेक्षा से किया गया है, जिन्होंने सम्यक्त्व आदि उत्तरगुणों को प्राप्त नहीं किया है। इस दृष्टि से अनन्तानुबन्धी कषाय को ध्रुवसत्ताक ही मानना चाहिए। यदि उत्तरगुणों की प्राप्ति की अपेक्षा से अध्रुवसत्ताकता मानी जाएगी, तो केवल अनन्तानुबन्धी कषाय ही क्यों, बल्कि सभी कर्मप्रकृतियाँ अध्रुवसत्ताका ठहरेंगी, क्योंकि उत्तरगुणों के होने पर सभी प्रकृतियाँ अपने-अपने योग्य-स्थान में सत्ता से विच्छिन्न हो जाती हैं। अट्ठाईस प्रकृतियाँ अध्रुवसत्तारूप क्यों? ... १५८ में से १३० प्रकृतियाँ कम होने पर शेष २८ प्रकृतियाँ अध्रुवसत्ताका प्ररूपित की गई हैं। उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-सम्यक्त्व-मोहनीय और मिश्रमोहनीय की सत्ता अभव्यों के तो होती ही नहीं, बल्कि बहुत-से भव्यों के भी नहीं होती है। तथा अग्निकाय और वायुकाय के जीव मनुष्यद्विक की उद्वलना कर देते हैं, इसलिए मनुष्यद्विक की सत्ता उनके नहीं होती। वैक्रिय आदि ग्यारह प्रकृतियों की सत्ता अनादिनिगोदिया जीवों के नहीं होती। तथा जो जीव उनका बन्ध करके एकेन्द्रिय में जाकर उद्वलन कर देते हैं, उनके भी ये प्रकृतियाँ नहीं होती! तथा सम्यक्त्व के होते हुए भी जिन (तीर्थंकर) नाम किसी के होता है, और किसी के नहीं होता। तथा स्थावरों के देवायु तथा नरकायु का, अहमिन्द्रों के तिर्यञ्चायु का, तेजस्काय, वायुकाय और सप्तमनरक के नैरयिकों के मनुष्यायु का सर्वथा बन्ध न होने के कारण उनकी सत्ता नहीं है। तथा संयम के होने पर (छठे आदि गुणस्थान में) आहारकसप्तक किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। तथा उच्चगोत्र भी अनादि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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