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________________ ५६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ समावेश कर लिया जाता है; जबकि सत्तायोग्य प्रकृतियों में प्रत्येक को पृथक्-पृथक् लेकर उनकी बीस प्रकृतियाँ गृहीत की गई हैं। इस प्रकार सोलह प्रकृतियाँ तो ये बढ़ गईं। इसके अतिरिक्त बन्ध और उदययोग्य प्रकृतियों में बन्धननामकर्म की १५, तथा संघात नामकर्म की ५, इन बीस प्रकृतियों को पृथक् से ग्रहण न करके शरीरनामकर्म की प्रकृतियों में ही उनका समावेश कर लिया गया है, जबकि सत्तायोग्य कर्मप्रकृतियों में इनको पृथक्-पृथक् गिनाया है। इस कारण सत्तायोग्य प्रकृतियों में. बन्धननामकर्म की १५ और संघात नामकर्म की ५, ये दोनों मिलाकर २० प्रकतियाँ और बढ़ जाती हैं। मोहनीय कर्म में बन्ध केवल मिथ्यात्व का होता है किन्तु सत्ता में मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीय-ये तीन प्रकतियाँ रहती हैं। अतः ये दो प्रकृतियाँ और बढ़ जाती हैं। यों २+१६+२०=३८ प्रकृतियाँ सत्तायोग्य प्रकृतियों में अधिक हो जाने से १२०+३८=१५८ प्रकृतियाँ सत्तायोग्य मानी गई हैं। ध्रुवबन्धिनी ध्रुवोदया से अध्रुवबन्धिनी-अधुवोदया की संख्या कम, ___ परन्तु सत्तायोग्य प्रकृतियों में इसके विपरीत यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है, वह यह कि बन्ध और उदय योग्य प्रकृतियों में ध्रुवबन्धिनी तथा ध्रुवोदया प्रकृतियों की संख्या अध्रुवबन्धिनी तथा अध्रुवोदया प्रकृतियों की संख्या से बहुत कम थी, जबकि ध्रुवसत्ताका और अध्रुवसत्ताका प्रकृतियों की संख्या में ठीक इससे विपरीत स्थिति है। यहाँ अध्रुवसत्ताका प्रकृतियों की संख्या सिर्फ २८ है, जबकि ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों की संख्या १३० है। इसका कारण यह है कि जिस समय किसी प्रकृति का बन्ध हो रहा हो, उस समय उस प्रकृति का उदय भी होना आवश्यक नहीं है, इसी प्रकार जिस समय किसी प्रकृति का उदय हो रहा हो, उस समय उसका बन्ध भी होना आवश्यक नहीं है, किन्तु उन दोनों (बन्धव्य तथा उदययोग्य प्रकृति) की ही सत्ता का होना आवश्यक है। अतएव बन्धदशा और उदयदशा की प्रकृतियाँ सत्ता में रहती ही हैं। तथा मिथ्यात्व दशा में जिनकी सत्ता नियम से नहीं होती, ऐसी प्रकृतियाँ भी कम ही हैं। इन कारणों से ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों की संख्या अधिक है, और अध्रुवसत्ताका प्रकृतियों की संख्या कम। ये एक सौ तीस प्रकृतियाँ ध्रुवसत्ताका क्यों ? त्रस आदि बीस, वर्ण आदि बीस और तैजस-कार्मण-सप्तक की सत्ता सभी संसारी जीवों के रहती है, अतः ये ध्रुवसत्ताका हैं। सैंतालीस ध्रुव-बन्धिनी प्रकृतियों १. पंचम कर्मग्रन्थ गा. ८, ९ विश्लेषण (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. २२, २३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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