________________
३८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
परिगणित किया गया है। ये दोनों प्रकृतियाँ अपने बन्ध कारणों के रहने पर आठवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक बंधती ही रहती हैं। मिथ्यात्व प्रकृति मिथ्यात्व मोहनीय के उदय में अवश्य बंधती है। मिथ्यात्व - मोहनीय का निरन्तर उदय मिथ्यात्व गुणस्थान तक होने से मिथ्यात्व का सतत बन्ध होता रहता है। इसका बन्ध मिथ्यात्व गुणस्थान के आगे के गुणस्थानों में नहीं होता ।
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, और लोभ, अप्रत्याख्यानावरणीय, क्रोध, मान, माया और लोभ, प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का - अर्थात् इन सोलह कषायों का अपने-अपने उदय रूप कारण के होने तक अवश्य ही बन्ध होता है। अतः इन सोलहों कषायों को ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में गिना है। इस प्रकार मोहनीय कर्म की १९ प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं।
ज्ञानावरण कर्म की पाँच, दर्शनावरण कर्म की नौ और अन्तराय कर्म की पाँच, ये उन्नीस कर्म-प्रकृतियाँ भी अपने-अपने बन्ध-विच्छेद होने के समय तक तथा अपनेअपने कारणों के रहते अवश्य ही बँधती हैं। तथा कोई इनकी विरोधिनी प्रकृतियाँ भी नहीं हैं। इसलिए इन्हें ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ माना है।
जिस प्रकृति का जहाँ तक उदय, वहाँ तक उसका बन्ध
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान आदि सोलह कषायों तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म की उन्नीस प्रकृतियों को ध्रुवबन्धिनी मानने का स्पष्ट अभिप्राय यह है कि कर्मविज्ञान में कर्मप्रकृतियों के बन्ध के पीछे सामान्य नियम यह है कि जहाँ तक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पाँचों बन्ध हेतुओं में से जिसका जिस गुण स्थान तक सद्भाव रहता है, तथा 'जे वेएइ ते बंधइ' इस नियमानुसार जिस कर्मप्रकृति का जिस गुणस्थान तक उदय रहता है, वहाँ तक उस कर्मप्रकृति का बन्ध अवश्य होता है। इसलिए अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और स्त्यानर्द्धि- त्रिक, इन ७ प्रकृतियों के बन्ध में अनन्तानुबन्धी कषाय के उदयजन्य आत्म- परिणाम कारण हैं। इनका उदय दूसरे सास्वादन गुणस्थान तक होता है। उससे आगे के गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी कषाय के उदयजन्य आत्मपरिणामों का अभाव होने से बन्ध नहीं होता है।
१. (क) घादिति मिच्छकसाया भयं - तेज-गुरु- दुग - णिमिण वण्णचओ । सत्तेतलं धुवा (ख) पंचम कर्मग्रन्थ गा. २ विवेचन ( मरुधरकेसरीजी) पृ. ११, १२
||
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
- गो. क. १२४
www.jainelibrary.org