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________________ ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय - सत्ता - सम्बद्धा प्रकृतियाँ ३७ (४) नामकर्म की नौ-वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, अगुरुलघु, निर्माण और उपघात । (५) अन्तराय कर्म की पाँच - दान - लाभ- भोग-उपभोग - वीर्यान्तराय । यों पाँच कर्मों की क्रमशः ५ +९+१९+९+५ = ४७ उत्तरप्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं । ये ध्रुवबन्धिनी इसलिए हैं कि अपने - अपने सामान्य कारणों के होने पर भी इन कर्मप्रकृतियों का अवश्य बन्ध होता है । १ ये सैंतालीस प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी क्यों और कहाँ तक ? वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण और उपघात, नामकर्म की इन नौ कर्मप्रकृतियों को ध्रुवबन्धिनी मानने का कारण यह है कि तैजस शरीर और कार्मण शरीर चारों गतियों के समस्त संसारस्थ जीवों के अवश्य होता है, और इनका समस्त जीवों से अनादि से सम्बन्ध है। एक भव का स्थूल शरीर छोड़ कर भवान्तर का अन्य शरीर धारण करने की अन्तराल गति ( भवान्तरयात्रा की . विग्रहगति) में भी तैजस और कार्मण शरीर से जीव का सम्बन्ध सतत बना रहता है। औदारिक और वैक्रिय शरीर, इन दोनों में से किसी एक का बन्ध अवश्य होने के कारण वर्ण-‍ - गन्ध-रस-स्पर्श नाम-कर्मों का बन्ध अवश्य होता है । तथा औदारिक या वैक्रिय शरीर का बन्ध होने पर उनके योग्य पुद्गलों से उनका निर्माण अवश्य होता है | अतः निर्माण नामकर्म का बन्ध भी अवश्यम्भावी है। इन औदारिक और वैक्रिय शरीर स्थूल होने से अन्य स्थूल पदार्थों से इन स्थूल शरीरद्वय का उपघात (टक्कर) अवश्य होता है । औदारिक या वैक्रिय शरीर अपनी योग्य वर्गणाओं को अधिक भी ग्रहण करें, किन्तु ग्रहण करने वालों को न तो वह शरीर लोहे के समान भारी मालूम होता है और न ही रुई के समान हल्का प्रतीत होता है। ये शरीर सदैव अगुरुलघु बने रहते हैं। इसलिए नामकर्म की उक्त नौ प्रकृतियाँ अपने कारणों के होने पर अवश्यमेव बँधती हैं, इस कारण ध्रुवबन्धिनी कहलाती हैं। इनका बन्ध अपूर्वकरण नामक अष्टम गुणस्थान के अन्तिम समय तक होता है। भय और जुगुप्सा, ये दोनों चारित्रमोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ हैं । इनके बन्ध की विरोधिनी कोई प्रकृति नहीं है। इसलिए इन दोनों को ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों में - कर्मग्रन्थ भा. ५ (क) वन्न - चउ-तेय - कम्मा गुरु-लहु-निमिनोवघाय-भय-कुच्छा । मिच्छ कसायावरणा विग्घं धुवबंधि सगचत्ता ॥ २ ॥ (ख) पंचम कर्मग्रन्थ गा. २ विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) पृ. ४-५ (ग) तुलना करें - नाणंतराय - दंसण धुवबंधि- कसाय - मिच्छ-भय-कुच्छा। अगुरुलघु-निमिणतेयं उवघायं वण्ण- चउ-कम्मं ॥ - पंचसंग्रह ३ / १५ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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