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________________ ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण ५३३ महावीर के पास दीक्षित होने के बाद ६ वर्ष तक गोशालक का पूर्व शुभ ऋणानुबन्धवश अच्छा व्यवहार रहा, परन्तु बाद में अशुभ ऋणानुबन्ध के उदय में आने पर वही गोशालक उनका कट्टर विरोधी बन गया। अतः किसी अकेले शुभ या अशुभ ऋण का बन्ध नहीं होता। फिर भी अनेक भवों का काल व्यतीत होने पर एकान्त शुभ या एकान्त अशुभ ऋण का बन्ध होना सम्भव होता है। जैसे- भावी तीर्थंकर और उनके माता-पिता के बीच अकेले शुभ ऋणानुबन्ध का उदय, तथैव वासुदेव और प्रतिवासुदेव के बीच होने वाला अकेले अशुभ ऋणानुबन्ध का उदय। ऋणानुबन्ध निकाचित होने पर तीव्रता से कार्यान्वित होता है · · इतना अवश्य है कि किसी एक भव में जीवन-पर्यन्त अधिकांश रूप से अधिक प्रमाण में सम्बन्धों के साथ शुभ या अशुभ भाव रहे हों तो तदनुसार बहुलता की अपेक्षा शुभ या अशुभ दोनों में से किसी एक ऋणानुबन्ध में उसकी गणना होती है। ऐसे अनेक भवों में शुभ या अशुभ ऋणानुबन्ध का संचय होता जाता है। और वह ऋणरूप बन्ध निकाचित होने से प्रबल हो जाता है; इस कारण उसका उदय अत्यन्त तीव्रता से शुभ या अशुभ फल के रूप में कार्यान्वित होता है। .. ऋणानुबन्ध से मुक्ति : एक ही भव में दुष्कर इस सम्बन्ध में यह जानना भी आवश्यक है कि पूर्वभव या भवों में बंधा हुआ ऋण (कर्मबन्ध), उससे बाद के चाहे जिस भव में चुकाने के लिए सांसारिक सम्बन्ध-समागम में आने पर भी पूर्णतया उदय में आए बिना उक्त ऋण से छुटकारा नहीं होता। जिस ऋणानुबन्ध रूप कर्म का अबाधाकाल पूर्ण न हुआ हो, वह कर्म उदय में आने योग्य न होने से, उसका उदय भविष्य में होने वाला होने से वह बद्धकर्म या ऋणरूप कर्मबन्ध सत्ता में पड़ा रहता है। फिर वर्तमान भव में ऋण चुकता करते समय भी उन सम्बन्धों के साथ फिर शुभाशुभ रागद्वेष रूप परिणाम होने से जो नया बन्ध पड़ता है, वह पूर्व के ऋणानुबन्ध के साथ जुड़ जाता है। आशय यह है कि किसी अपवाद के सिवाय बंधे हुए समस्त कर्म-ऋण से एक भव में पूर्णतया उदय में आकर छुटकारा होना दुष्कर है। ऋणमुक्त तभी हुआ जा सकता है, जब नया बन्ध न पड़े। कई भवों की धर्मसाधना के पश्चात् अन्तिम भव में ऐसा होता है; यानी ऋणमुक्त हो सकता है। जैसे सोमल ब्राह्मण से गजसुकुमाल के जीव का निकाचित ऋणानुबन्ध ९९ लाख भवों के पश्चात् पूर्णतया उदय में आया और गजसुकुमालमुनि की प्रबल धर्माराधना-भेदविज्ञान साधना के कारण शीघ्र ही उनकी ऋणमुक्ति हो गई। १. ऋणानुबन्ध (भोगीभाई गि. शेठ), भावग्रहण, पृ.१० से १२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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