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________________ ५३४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ अगर गजसुकुमाल मुनि सोमल ब्राह्मण के प्रति जरा भी रोष, द्वेष या क्लेश करते तो उनका अशुभ ऋणानुबन्ध और अधिक प्रबल हो जाता । अधिक शुभ ऋणानुबन्धी भवों की बड़ी संख्या लाभदायी, किन्तु अशुभ की संख्या पीड़ाकारी अधिक शुभ ऋणानुबन्धी भवों की बड़ी संख्या व्यवहार में अत्यन्त लाभदायी तथा अनुकूल होती है, इससे भी अधिक उपकारी और भवबन्धन तोड़ने में लाभदायी बनता है- ऋणानुबन्ध का ऋण चुकाते समय परमार्थ दृष्टि का योग, जो कि आत्मदशा की उत्कृष्टता शीघ्रता से लाने में उपकारक होता है। इसके विपरीत अधिक अशुभ ऋणानुबन्धी भवसंख्या अत्यन्त पीड़ाकारी तथा आधि-व्याधि-उपाधि से युक्त होने से प्रायः दुःखदायक सिद्ध होती है। अनन्तज्ञानी भगवान् महावीर को अन्तिम भव में पूर्वबद्ध दीर्घकालिक अधिक भवसंख्या का अशुभ ऋणानुबन्ध चुकाना पड़ा था, नाना कठोर परीषहों और उपसर्गों के रूप में। सामान्यतया ऋणानुबन्ध के बल का बड़ा संचय मुख्यतया शुभ हो तो मोक्ष होने से पहले के और अशुभ हो तो नरकगति में जाने से पहले के पच्चीस भवों में होता है। उसके अतिरिक्त न्यूनाधिक बल वाला ऋणानुबन्ध-संचय तो प्रत्येक भंव में होता रहता है और प्रायः उदय में आने पर उसका फल भी भोगा जाता है। भवों की संख्या अधिक हो तो बल और फल भी अधिक, संख्या कम हो तो दोनों कम भव भव में सांसारिक सम्बन्ध ज्यों-ज्यों बढ़ते जाते हैं, त्यों-त्यों शुभाशुभ परिणामानुसार शुभाशुभ ऋणानुबन्ध का जत्था बढ़ता जाता है। जैसे-जैसे उस-उस प्रकार के भवों की संख्या अधिक होती रहती है, वैसे-वैसे उसका बल और फल अधिक तथा जैसे-जैसे उस-उस प्रकार के भवों की संख्या कम होती है तो तदनुसार उसका बल और फल कम होता है। उत्कृष्ट लाभ या हानि अधिकतम शुभाशुभ ऋणानुबन्धी अनेक भवों की संख्या पर निर्भर है, जबकि कनिष्ठ लाभ या हानि निर्भर है न्यूनतम शुभाशुभ ऋणानुबन्धी अल्पभवसंख्या पर। ऋणानुबन्ध की शक्ति का संचय सबसे अधिक होता है- मनुष्यभव में, और सबसे कम होता है- तिर्यञ्चभव में । Jain Education International प्रत्येक गति के जीव तथा एक गति के जीव का अन्य गति के जीव के साथ ऋणानुबन्ध के अनुसार सम्बन्ध चारों गतियों के जीवों में से प्रत्येक गति के जीव पूर्वभव या भवों में जिन शुभाशुभ ऋणानुबन्ध से बंधे हुए होते हैं, वे अगले भव या भवों में उक्त ऋण चुकाने For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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