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________________ ५३२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ परिभ्रमण का काल एकदम घट जाने के साथ ही आत्मकल्याण और आत्मश्रेय का अपूर्व लाभ प्राप्त होता है और अन्त में, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होने का लाभ भी कम नहीं है। शुभ ऋणानुबन्ध से व्यवहार की अपेक्षा परमार्थ में विशेष लाभ जिस प्रकार व्यवहार में जीव शुभ ऋणानुबन्ध के उदय से संसार के पारिवारिक सम्बन्धों से या मित्रादि सम्बन्धों से बंधता है, और परस्पर प्रीतिवश अनुकूल रहता है, उस प्रकार परमार्थ में अध्यात्ममार्ग की रुचि वाले साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका या अन्य सत्संगी, मुमुक्षु या जिज्ञासु के रूप में ऋणानुबन्ध के उदय से परस्पर वात्सल्यभाव से जुड़ते हैं और परस्पर हितैषी बनकर धर्माराधन करते हैं। इसी प्रकार गुरु-शिष्य का या धर्माचार्य एवं उनके अनुयायियों का सम्बन्ध भी शुभ ऋणानुबन्ध के उदय (फल) रूप है। अमुक व्यक्ति के प्रति ही अमुक का आकर्षण, शुभ ऋणानुबन्ध के कारण इस पर से यह भी परिलक्षित होता है कि विभिन्न ज्ञानी पुरुषों के रहते तथा उनके उच्चकोटि के सुन्दर भाववाही वचन-प्रवचन होते हुए भी अमुक व्यक्ति उनके प्रति आकर्षित नहीं होते, न ही उन्हें गुरु रूप में स्वीकारते हैं। वे अमुक ज्ञानी पुरुष के प्रति आकर्षित होते हैं, उन्हीं की भक्ति करते हैं, इसके पीछे भी पूर्वबद्ध शुभ ऋणानुबन्ध का उदय कारण है। क्योंकि दूसरों के प्रति वैसे शुभ ऋण के बन्ध का अभाव है। जिसके साथ शुभ ऋणानुबन्ध का सम्बन्ध हो, और वह उदय में हो, उसके प्रति ही जीव का आकर्षण होता. है। यही नियम सर्वत्र अबाधित रूप से प्रचलित है। जैसे- पूर्व शुभ ऋणानुबन्ध से आकर्षित होकर गौतम स्वामी के उपदेश से प्रतिबुद्ध एवं विरक्त होकर एक कृषक मुनि बना और उनके साथ भगवान् महावीर के समवसरण में प्रवेश करते ही पूर्व अशुभ ऋणानुबन्ध के कारण भगवान् महावीर को देखते ही वह भड़क उठा और वेश छोड़कर वापस लौट गया। एक ही भव में शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के ऋणानुबन्ध का उदय ऐसा भी एकान्त रुप से सम्भव नहीं होता कि जीव का किसी एक भव में आयुष्य के अन्त तक दूसरे जीवों के साथ लगातार शुभ या अशुभ भाव रहें। इस कारण एकान्त शुभ या एकान्त अशुभ ऋण का बन्ध नहीं होता। जैसे- भगवान् १. आध्यात्मिक निबन्धों में से ऋणानुबन्ध प्रकरण (भोगीभाई गि. शेठ) से भावांश ग्रहण, पृ० ९१ २. देखें-भगवान् महावीर : एक अनुशीलन (आचार्य देवेन्द्र मुनि) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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