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ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण ५३१
इस पर से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि संसार के जितने भी वर्तमान में शुभ या अशुभ मित्र-शत्रु या माता-पुत्र आदि सम्बन्ध जुड़ते हैं, वे पहली बार ही जुड़े हैं, ऐसा नहीं होता; क्योंकि उस भव से पूर्व भव या भवों में उस प्रकार के शुभ-अशुभ सम्बन्ध बने ही हैं। परन्तु पूर्वबद्ध कर्मऋणानुबन्ध के कारण माता-पुत्र, पति-पत्नी आदि सम्बन्ध बनते हैं राग-द्वेष की प्रबल घनिष्ठता के कारण ही।
. शुभ ऋणानुबन्ध की कुछ विशेषताएँ परन्तु शुभ ऋणानुबन्ध की कुछ विशेषताएँ हैं। यदि कोई जीव अन्य जीव या जीवों के साथ संसार-व्यवहार में अनेक भवों तक अपने शुभ भाव सुरक्षित रखकर शुभ ऋणानुबन्ध बांधता रहे तो व्यवहार से तो उस प्रथम जीव को दूसरे जीवों द्वारा सहायता, सहयोग, वात्सल्य, स्नेह, सुविधा आदि सांसारिक लाभ तो मिलते ही हैं, किन्तु तदुपरांत एक महान् लाभ यह है कि जब प्रथम जीव तथा अन्य जीवों में से कोई एक व्यक्ति परमार्थधर्म में रुचिवाला होकर ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप धर्म की उच्च आराधना-साधना के द्वारा आत्मज्ञान और उच्च आत्मदशा प्राप्त कर लेता है, तब वह अन्य शुभ ऋणानुबन्धी व्यक्ति या व्यक्तियों को अध्यात्ममार्ग की ओर आकर्षित करके उसे आत्मज्ञान प्राप्त कराने में तथा आत्मदशा के विकास में सहायक होकर उच्चपद की ओर ले जाता है। इस प्रकार बहुधा व्यवहार का ऋण परमार्थ द्वारा चुका दिया जाता है। इस दृष्टि से अनेक भवों का शुभ ऋणानुबन्ध कितना श्रेयस्कर हो सकता है? जैसे- बाईसवें तीर्थंकर भगवान् अरिष्टनेमि और राजीमती के जीव का उस भव सहित नौ भवों का शुभ ऋणानुबन्ध था। उससे पूर्व आठ भवों तक लगातार दोनों का शुभ ऋणानुबन्ध सांसारिक व्यवहारयुक्त रहा। नौवें भव में भगवान् अरिष्टनेमि ने उस शुभ ऋणानुबन्ध को परमार्थदृष्टि से चुकाने हेतु स्वयं रत्नत्रयरूप अध्यात्ममार्ग अपना कर राजीमती को भी उसी परमार्थमार्ग में आकर्षित किया और साथ ही अपने लघुभ्राता रथनेमि को भी। अन्ततः दोनों को सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बनाने में वे सहायक बने।
व्यवहार से एक भव परिमित सुख का लाभ, परमार्थ से सिद्धलाभ - व्यवहार से कर्मबन्ध ऋण चुकाने में अधिक से अधिक एक भव परिमित सांसारिक सुख का लाभ मिलता है, जबकि परमार्थ से इस ऋण को चुकाने में संसार
१. आध्यात्मिक निबन्धों में से ऋणानुबन्ध प्रकरण (भोगीभाई गि. शेठ) से साभार
अनूदित २. देखें-तीर्थकर अरिष्टनेमि : एक अनुशीलन (आचार्य देवेन्द्र मुनि जी)
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