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________________ ध्रुव-अध्रुवरूपा बन्ध-उदय-सत्ता-सम्बद्धा प्रकृतियाँ ३५ ध्रुवोदया-अधुवोदया प्रकृतियों का स्वरूप (३) ध्रुवोदया प्रकृति-जिस प्रकृति का उदय अविच्छिन्न हो, निरन्तर या लगातार हो, अर्थात् -अपने उदयकाल-पर्यन्त प्रति समय जीव को जिस प्रकृति का उदय बिना रुके लगातार होता रहे, उसे ध्रुवोदया प्रकृति कहते हैं। (४) अधुवोदया प्रकृति-अपने उदयकाल के अन्त तक जिस प्रकृति का उदय लगातार (अविच्छिन्न) नहीं रहता। कभी उदय होता है, कभी नहीं होता। अर्थात् उदय-विच्छेद-काल तक में भी जिसके उदय का नियम न हो, उसे अध्रुवोदया प्रकृति कहते हैं। कर्मोदय के पाँच हेतु और उदय का नियम सामान्यतया समस्त कर्मप्रकृतियों के उदय के पाँच हेतु हैं-(१) द्रव्य, (२) क्षेत्र, (३) काल, (४) भव और (५) भाव। इन पाँचों के समूह द्वारा समस्त कर्म प्रकृतियों का उदय होता है। एक ही प्रकार के द्रव्यादि हेतु समस्त कर्मप्रकृतियों के उदय में कारणरूप नहीं होते हैं। अपितु भिन्न-भिन्न प्रकार के द्रव्यादि हेतु कारण रूप होते हैं। कोई द्रव्यादि सामग्री किसी प्रकृति के उदय में कारणरूप होती है जबकि अन्य कोई सामग्री किसी अन्य प्रकृति के उदय में हेतुरूप होती है। किन्तु यह निश्चित है कि जहाँ एक भी उदय हेतु है, वहाँ अन्य सभी हेतु समूहरूप में उपस्थित रहते हैं। . . ध्रुव-अधुवसत्ताकी प्रकृतियाँ स्वरूप और कार्य । (५) ध्रुवसत्ताकी प्रकृति-सम्यक्त्व आदि उत्तरगुणों की प्राप्ति होने से पहले, अर्थात्-मिथ्यात्व दशा में समस्त संसारी जीवों के जो प्रकृति सदा-सर्वदा विद्यमान रहती है, अथवा अनादि-मिथ्यादृष्टि जीव को जो प्रकृति सदा-सर्वदा विद्यमान रहती है, निरन्तर सत्ता में होती है, उसे ध्रुवसत्ताको प्रकृति कहते हैं। . . (६) अध्रुवसत्ताकी प्रकृति-मिथ्यात्व दशा में जिस कर्म-प्रकृति की सत्ता का निषम नहीं होता; यानी किसी समय सत्ता में हो और किसी समय न भी हो, उसे अध्रुवसत्ताकी प्रकृति कहते हैं। . ध्रुवसत्ताकी प्रकृति की सत्ता प्रत्येक जीव को विच्छेदकाल तक प्रति समय होती है, जबकि अध्रुवसत्ताको प्रकृति के लिए यह नियम नहीं है कि विच्छेदकाल तक प्रत्येक समय उसकी सत्ता हो ही। १. (क) अव्वोच्छिन्नो उदओ जाणं पगईण ता धुवोदइया। वोच्छिन्नो वि हु संभवइ, जाण अधुवोदया तओ॥ --पंचसंग्रह ३/३७ (शेष पृष्ठ ३६ पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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