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________________ ५१८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ क्षपक श्रेणी द्वारा ऊर्ध्वारोहण का मार्ग उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी के कार्य और फल में अन्तर यद्यपि उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी इन दोनों के द्वारा ऊर्ध्वारोहण करने वाले मोहनीय कर्म के उपशम और क्षय करने के लिए अग्रसर होते हैं, किन्तु उपशमश्रेणी में तो मोहकर्म की प्रकृतियों के उदय को शान्त किया जाता है, मगर प्रकृतियों की सत्ता बनी रहती है, केवल अन्तर्मुहूर्त भर के लिए वे अपना फल नहीं दे पातीं। किन्तु क्षपक श्रेणी में तो उन प्रकृतियों की सत्ता ही निर्मूल (नष्ट) कर दी जाती है, जिससे उनके पुनः उदय में आने की भीति ही नहीं रहती । यही कारण है कि क्षपक श्रेणी में साधक का पतन नहीं होता । उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि उपशम श्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों का केन्द्र बिन्दु या निशाना मोहनीय कर्म है, किन्तु उपशम श्रेणी में मोहनीय कर्म का उपशम होने से पुनः उसका उदय हो जाता है, जिससे पतन होने पर इतनी सब की हुई पारिणामिक शुद्धि और ऊर्ध्वारोहण की मेहनत व्यर्थ हो जाती है। यद्यपि कर्मशास्त्रियों के अनुसार दूसरी बार वह जीव क्षपकश्रेणी पर चढ़ सकता है, बशर्ते कि वह छठे गुणस्थान में आकर संभल जाए, इतना आशास्पद आश्वासन है । किन्तु क्षपक श्रेणी में मोहनीय कर्म का समूल क्षय होने से पुन: उदय नहीं होता और उदय न होने से पतन भी नहीं होता, वह पारिणामिक शुद्धि और ऊर्ध्वारोहण की मेहनत व्यर्थ नहीं जाती, अपितु पारिणामिक शुद्धि पूर्ण होने से आत्मा अपने पूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेती है, केवलज्ञानी हो जाती है । उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी में दूसरा अन्तर यह है कि उपशमश्रेणी में केवल मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का ही उपशम होता है, जबकि क्षपक श्रेणी में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों (पृष्ठ ५१७ का शेष) (ग) जो दुवे वारे उवसम - सेटिं पडिवज्जइ, तस्स नियमा तम्मि भवे खवगसेढी नत्थि । जो इक्वंसि उवसम सेढिं पडिवज्जइ तस्स खवगसेढी हुज्ज ति । - सप्ततिका चूर्णि, पंचम कर्मग्रन्थ टीका पृ. १३२ (घ) अद्धाखये पडतो अधापवत्तो त्ति पडदि हु कमेण । सुज्झतो आरोहदि पडदि हु सो संकिलिस्संतो॥ ३११॥ जीव उपशम श्रेणि में अधःकरण पर्यन्त तो क्रम से गिरता है। उसके बाद यदि पुनः विशुद्ध परिणाम होते हैं, तो पुनः ऊपर के गुणस्थानों में चढ़ता है। यदि संक्लेश परिणाम होते हैं तो नीचे के गुणस्थानों में आता है। (ङ) एगभवे दुक्खुत्तो चरित्तमोहं उवसमेज्जा । Jain Education International - कर्मप्रकृति गा. ६४ पंच-संग्रह (उपशम) गा. ९३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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