________________
ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५१७ किन्तु इस विषय में एक बात ध्यान देने योग्य है कि यदि पतनोन्मुखी उपशमश्रेणी आरोहक फिसलते-फिसलते छठे गुणस्थान में आकर संभल जाता है तो पुनः उपशम श्रेणी चढ़ सकता है, क्योंकि कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह आदि कर्मशास्त्रों में एक भव में दो बार उपशम-श्रेणी-आरोहण का उल्लेख पाया जाता है। परन्तु जो जीव दो बार उपशमश्रेणी चढ़ता है, वह जीव उसी भव में क्षपकश्रेणी नहीं चढ़ सकता। इसके विपरीत जो एक बार उपशमश्रेणी चढ़ता है, वह दूसरी बार क्षपकश्रेणी भी चढ़ सकता है। यह कर्मग्रान्थिकों का मत है। सैद्धान्तिकों के मतानुसार तो एक जीव एक भव में एक ही श्रेणी चढ़ सकता है।
इस प्रकार उपशम श्रेणी का क्रम, स्वरूप और कार्य तथा सफलता-विफलता का उल्लेख जानना चाहिए।
(पृष्ठ ५१६ का शेष). (ख) उवसामं उवणीया, गुणमहया जिणचरित्त-सरिसं पि।
पडिवायंति कसाया, किं पुण सेसे सरागत्थे॥ ११८॥ -आवश्यक नियुक्ति अर्थात्-गुणवान् पुरुष के द्वारा उपशान्त किये हुए कषाय जिन भगवान् के सदृश चारित्र वाले व्यक्ति का भी पतन करा देती है, फिर अन्य सरागी पुरुषों का तो
कहना ही क्या? (ग) पज्जवसाणे सो वा होइ पमत्तो अविरओ वा॥ -विशेषा. भाष्य, गा. १२९०
टीका-'पज्जवसाणे' तस्याः प्रतिपतन् स वा भवेत् अप्रमत्तसंयतो वा, स्यात् प्रमत्तो वा, अविरति सम्यग्दृष्टिा, 'वा' शब्दात् सम्यक्त्वमपि जह्यात्। श्रेणि से गिरकर अप्रमत्त-संयत, प्रमत्तसंयत (देशविरत) या अविरत सम्यग्दृष्टि
हो जाता है। 'वा' शब्द से सम्यक्त्व को भी छोड़ सकता है। । (घ) बृहवृत्ति के अनुसार-श्रेणि की समाप्ति पर वहाँ से लौटते हुए जीव सातवें या
छठे गुणस्थान में आकर ठहरता है। यदि वह काल कर जाता है, तो मरकर अविरत सम्यग्दृष्टि देव होता है। कर्मशास्त्रियों के मतानुसार श्रेणि से गिरकर
जीव पहले गुणस्थान तक भी जाता है। -विशे. भाष्य, वृहद्वृत्ति का भावानुवाद १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ, उपशम श्रेणि द्वार, व्याख्या (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. ३२६ से
३२८ (ख) विशेषावश्यक भाष्य के अनुसार-उपशम श्रेणि से गिरकर मनुष्य उस भव में
मोक्ष नहीं जा सकता और कोई-कोई तो अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल-परावर्त काल तक संसार में भ्रमण करते हैं। कहा भी हैतम्मि भवे निव्वाणे न लभइ उक्कोसओ व संसारं। पोग्गल-परियट्टद्धं देसूणं कोइ हिंडेजा॥ १३१५॥
-वि. भाष्य. (शेष पृष्ठ ५१८ पर)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org