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________________ ५१६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ डाल देने से, पानी के साथ मिली हुई गंदगी उसके तल में बैठ जाती है। पानी (ऊपर से) निर्मल हो जाता है, किन्तु उसके नीचे गंदगी ज्यों की त्यों मौजूद रहती है। उसी तरह उपशमश्रेणी में जीव के परिणामों को कलुषित करने वाला प्रधान मोहनीय कर्म शान्त कर दिया जाता है। अपूर्वकरण वगैरह परिणाम ज्यों-ज्यों ऊँचे उठते जाते हैं, त्यों-त्यों मोहनीय रूपी धूलि के कण-स्वरूप उसकी उत्तर-प्रकृतियाँ एक के बाद एक शान्त होती चली जाती है। इस प्रकार उपशमित की गई प्रकृतियों में न तो स्थिति और अनुभाग (रस) को घटाया जा सकता है और न ही उन्हें बढ़ाया जा सकता है, और न उनका उदय या उदीरणा हो सकती है और न ही उन्हें अन्य प्रकृति के रूप में संक्रमित किया जा सकता है। उपशम करने के ये ही कुछ लाभ हैं। मगर उपशम तो केवल अन्तर्मुहूर्त काल के लिये किया जाता है। उपशम श्रेणी के पश्चात् शान्त कषाय, पुनः उत्तेजित और पतन अतः दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ का उपशम करके जीव जब ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचता है, तब कम से कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त के पश्चात्, शान्त हुए कषाय पुनः उसी तरह उठ खड़े होते हैं, जैसेशहर में उपद्रव करने वाले गुंडे या अराजक तत्व पुलिसबल को आते देख इधरउधर छिप जाते हैं और उसके जाते ही पुनः उपद्रव मचाने लगते हैं। फलतः वह जीव जिस क्रम से ऊपर चढ़ा था, उसी क्रम से नीचे उतरना शुरू कर देता है। और ज्यों-ज्यों नीचे उतरता जाता है, त्यों-त्यों चढ़ते समय जिस-जिस गुणस्थान में जिनजिन प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद किया था, उस-उस गुणस्थान में आने पर वे प्रकृतियाँ पुनः बंधने लगती हैं। उतरते-उतरते वह सातवें या छठे गुणस्थान में ठहरता है यदि वहाँ भी स्वयं को नहीं संभाल पाता है, तो पांचवें और चौथे गुणस्थान में आ पहुँचता है। यदि अनन्तानुबन्धी का उदय आ जाता है, तो सास्वादन सम्यग्दृष्टि? होकर पुनः मिथ्यात्व में पहुँच जाता है। इस प्रकार सब किया कराया चौपट हो जाता है। १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ, उपशम श्रेणिद्वार, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी) से साभार उद्धृत, पृ. ३२४, ३२५ २. (क) अन्यत्राऽप्युक्तम् उवसंतं कम्मं जं न तओ कढेइ न देइ उदए वि। न य गमयइ परपगई, न चेव उक्ड्ढ ए तं तु॥ . . -कर्मगन्थ भा. ५ स्वो.टी. पृ. १३१ (शेष पृष्ठ ५१७ पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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