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________________ ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५१५ कि अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व का उपशम करने पर सप्तम गुणस्थान होता है, क्योंकि उनका उदय हो तो सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। ऐसी स्थिति में उपशमश्रेणी में पुनः उनका (अनन्तानुबन्धी आदि का) उपशम बतलाने की क्या आवश्यकता है? इसका समाधान यह है कि वेदक सम्यक्त्व, देशचारित्र और सकलचारित्र की प्राप्ति उक्त प्रकृतियों के क्षयोपशम से होती है और वेदक-सम्यक्त्वपूर्वक ही उपशमश्रेणी में उपशम-सम्यक्त्व होता है। अतः उपशमश्रेणी का प्रारम्भ करने से पहले उक्त प्रकृतियों का क्षयोपशम रहता है, न कि उपशम। फिर भी शंका होती है कि उदय में आए हुए कर्मदलिकों का क्षय और सत्ता में विद्यमान (अनुदित) कर्मदलिकों का उपशम होने पर क्षयोपशम होता है, फिर क्षयोपशम और उपशम में क्या अन्तर रहा? - इसका समाधान है-क्षयोपशम में घातक कर्मों का प्रदेशोदय रहता है, जबकि उपशम में उनका किसी भी तरह का उदय नहीं होता। यही क्षयोपशम और उपशम में अन्तर है। एक शंका यह होती है कि यदि क्षयोपशम के होने पर भी अनन्तानुबन्धी कषाय आदि का प्रदेशोदय होता है, तो सम्यक्त्व आदि का घात क्यों नहीं होता? . समाधान यह है- उदय दो प्रकार का होता है- एक विपाकोदय (फलोदय) और दूसरा प्रदेशोदय। विपाकोदय होने से गुण का घात होता है, किन्तु प्रदेशोदय से नहीं, क्योंकि वह अत्यन्त मन्द होता है। . . - अतः क्षयोपशम और उपशम में अन्तर होने के कारण उपशमश्रेणी में अनन्तानुबन्धी आदि का उपशम किया जाता है। . उपशम श्रेणी में मोहनीय कर्म की सर्वप्रकृतियों का उपशम : लाभ-हानि निष्कर्ष यह है कि उपशमश्रेणी में मोहनीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का पूरी तरह से उपशम किया जाता है। उपशम कर देने पर भी उन कर्मों का अस्तित्व (सत्ता) तो बना ही रहता है। जैसे- गंदले पानी से भरे हुए घड़े में फिटकरी आदि १. देखें भगवती सूत्र में एवं खलु गोयमा! मए दुविहे कम्मे पण्णत्ते, तं पएसकम्मे य अणुभावकम्मे य। तत्थ णं जं तं पएसकम्मं तं नियमा वेएइ। तत्थ णं जं तं अणुभावकम्मं तं अत्थेगइयं वेएइ, अत्थेगइयं नो वेएइ। -भगवती. विशेषा.भाष्य कोट्याचार्य टीका, पृ. ३८२ में उद्धृत। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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