SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५१४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ त्रिभाग में पूर्वस्पर्द्धकों और अपूर्व स्पर्द्धकों से दलिकों को लेकर अनन्त कृष्टि करता है। अर्थात्- उनमें अनन्तगुणा हीन रस करके उन्हें अन्तराल से स्थापित कर देता है। कृष्टिकरण के काल से अन्त समय में अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण लोभ का उपशम करता है। उसी समय में संज्वलन लोभ के बन्ध का विच्छेद हो जाता है। और बादर संज्वलन लोभ के उदय और उदीरणा का भी विच्छेद हो जाता है। इसके साथ ही नौवें गुणस्थान का अन्त हो जाता है। उसके बाद दसवाँ सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान होता है। सूक्ष्म सम्प्राय का काल अन्तर्मुहूर्त है। उसमें आने पर ऊपर की स्थिति से कुछ कृष्टियों को लेकर सूक्ष्म सम्पराय के काल के बराबरं प्रथम स्थिति को करता है और एक समय कम दो आवलिका में बंधे हुए शेष दलिकों का उपशम करता है। सूक्ष्म-सम्पराय के अन्तिम समय में संज्वलन लोभ का उपशम हो जाता है। उसी समय में ज्ञानावरणीय की पांच, दर्शनावरणीय की चार, अन्तराय की पांच और यश कीर्ति तथा उच्चगोत्र, इन प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद हो जाता है। अनन्तर समय में ग्यारहवाँ उपशान्तकषाय गुणस्थान आ जाता है। इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की २८ ही प्रकृतियों का उपशम रहता है। कुछ शंकाएँ : कुछ समाधान यहाँ एक शंका उपस्थित होती है-एक ओर तो यह. विधान है कि सप्तम गुणस्थानवी जीव ही उपशमश्रेणी२ का प्रारम्भ करता है, दूसरी ओर यह विधान १. पंचम कर्मग्रन्थ, उपशम श्रेणिद्वार व्याख्या (पं. कैलाशचन्द्र जी जैन) से साभार उद्धृत, पृ. ३२१, ३२२ २. (क) अन्नयरो पडिवजइ दंसण-समणम्मि उ नियट्टी।-(विशेषावश्यक भाष्य गा. १२९१) अर्थात्-अन्य आचार्यों का कहना है कि अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत में से कोई भी एक उपशम श्रेणी चढ़ता है। इस मतभेद का कारण यह प्रतीत होता है कि जिन्होंने दर्शनमोहनीय के उपशम (द्वितीय उपशम-सम्यक्त्व के प्रारम्भ) से ही उपशम श्रेणि का प्रारम्भ माना है, वे चौथे आदि गुणस्थानवी जीवों को उपशम श्रेणि का प्रारम्भक मानते हैं, क्योंकि उपशम सम्यक्त्व चौथे आदि गुणस्थानों में ही प्राप्त किया जाता है, किन्तु जो चारित्र मोहनीय के उपशम से (या उपशमचारित्र के लिये किये गए प्रयत्न से) उपशम श्रेणि का प्रारम्भ मानते हैं, वे सप्तम गुणस्थानवर्ती जीव को ही उपशम श्रेणि का प्रारम्भक मानते हैं, क्योंकि सप्तम गुणस्थान में ही यथाप्रवृत्तकरण होता है। अधिक कर्मशास्त्री इसी मत को प्रामाणिक मानते हैं। (ख) पंचम कर्मग्रन्थ उपशम श्रेणि-द्वार , (पं. कैलाशचन्द्र जी) से साभार उद्धृत पृ.३२० से ३२४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy