SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५१९ के साथ-साथ नामकर्म की कुछ प्रकृतियों व ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म की प्रकृतियों का भी क्षय होता है। क्षपकश्रेणी में क्षय होने वाली ६३ प्रकृतियाँ क्षपकश्रेणी में जिन प्रकृतियों का क्षय किया जाता है, उन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय, मनुष्यायु के सिवाय बाकी की तीन आयु, एकेन्द्रिय जाति, विकलेन्द्रियत्रिक (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति), स्त्यानर्द्धि आदि तीन निद्राएँ, उद्योतनाम, तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आतप, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादिषट्नोकषाय, पुरुषवेद, संज्वलन-कषाय, निद्राद्वय (निद्रा और प्रचला), पांच अन्तराय, चार दर्शनावरण और पांच ज्ञानावरण; इन ६३ कर्मप्रकृतियों का क्षपक़श्रेणीवी जीव क्षय करता है और केवलज्ञानी होता है। क्षपकश्रेणी में प्रकृतियों के क्षय का क्रम क्षपकश्रेणी में मोहनीय कर्म आदि प्रकृतियों के क्षय (क्षपण) का क्रम इस प्रकार है- आठ वर्ष से अधिक आयु वाला उत्तम संहनन का धारक, चौथे, पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थानवर्ती मनुष्य क्षपकश्रेणी प्रारम्भ करता है। सर्वप्रथम वह अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क का एक साथ क्षय करता है और उसके शेष अनन्तवें . १. पंचम कर्मग्रन्थ क्षपक श्रेणिद्वार, (मरुधरकेसरी जी) पृ. ३८८, ३८९ २. (क) अण-मिच्छ-मीस-सम्मं, ति आऊ-इग-विगल-थीण-तिगुजोवं। .. . तिरि-नरय-थावर-दुगं, साहारायव-अइ नपुत्थीए॥ ९९॥ छग-पुं-संजलणा-दो-निद्द-विग्घ-वरणक्खए नाणी। (ख) तुलना करें-अण-मिच्छ-मीस-सम्मं, अट्ठ नपुंसित्थि-वेय-छक्कं च। पुमवेयं च खवेइ कोहाइए य संजलणो॥ २१॥ गइ अणुपुव्वि दो दो जाती नामं च जाव चरिंदी। आयावं उज्जोयं, थावरनामं च सुहमं च ॥ १२२॥ साहारमपज्जत्तं निद्दानिदं च पयल-पयलं च। थीणं खवेई ताहे अवसेसं जं च अट्ठण्हं ॥ १२३॥ ३. (क) पंचम कर्मग्रन्थ, क्षपक श्रेणिद्वार, विवेचन (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. ३२८, ३२९, ३३० (ख) पडिवत्तीए अविरय-देस-पमत्तापमत्त-विरयाणं। अन्नयरो पडिवजइ सुद्धज्झाणोवगयचित्तो॥ १३२१॥ -विशेषावश्यक भाष्य (शेष पृष्ठ ५२० पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy