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________________ ५०२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ कर्ममुक्ति की ओर बढ़ने के लिए औपशमिकादि तीन भावों को अपनाओ संसार के अधिकांश जीव औदयिक भाव के चक्कर में फंसकर अपनी स्वतंत्रता का स्वयं हनन करते रहे हैं। ऐसे जीव अनादिकाल से कर्मबन्ध की जंजीरों से जकड़े हुए हैं और आगे भी जकड़े रहते हैं, कभी उससे छूटने का या कम से कम अशुभकर्मों से दूर रहने का भी प्रयत्न नहीं करते । वे यथास्थिति सन्तोष मानकर भाग्य भरोसे या भगवान भरोसे हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहते हैं। वे प्राय: औदयिक भाव में ही निमग्न रहते हैं । परन्तु आत्मार्थी जीव औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भावों की ओर क्रमशः बढ़ने का पुरुषार्थ करते हैं। इस कारण वे अहर्निश व्याकुलता, अशान्ति और विषमता में निमग्न न रहकर समता और शान्ति के सरोवर में डूबे रहते हैं। यद्यपि औपशमिक भावों में जितनी देर वह रहता है, उतनी देर तक उसके परिणाम शुद्ध और निर्मल रहते हैं तथा क्षायोपशमिक भावों में परिणामों की निर्मलता एवं शुद्धता का उतार-चढ़ाव रहता है, कर्म का कुछ क्षय और कुछ उपशम रहता है, किन्तु क्षायिक भावों को पाकर घातिकर्मों से तथा बाद में अघातिकर्मों से भी सदा के लिए छुटकारा पा जाते हैं। अतः ज्ञानपूर्वक पारिणामिक भावों के साथ औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भावों में पुरुषार्थ किया जाए तो कर्मों के बन्ध से कर्ममुक्ति की ओर सरपट दौड़ना सुगम हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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