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________________ औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ५०१ और गोत्र, इन चार अघातिकर्मों में क्षायिक, पारिणामिक और औदयिक, ये तीन भाव ही सम्भव है। पांच भावों की प्ररूपणा क्यों और प्रेरणा क्या? हमारे जीवन में सतत् आध्यात्मिक स्तर पर स्वतंत्रता और परतंत्रता का संघर्ष जारी रहता है। पांच भावों में से एक भाव है-पारिणामिक भाव, जो जीव (आत्मा) को सर्वथा स्वतंत्र बनाये रखने के लिए अहर्निश प्रयत्नशील है। इसलिए वह भाव आत्मिक स्वातंत्र्य के लिए सतत संघर्ष करता रहता है, वह एक क्षण के लिए प्रमाद नहीं करता। वह अन्ततम में जागरूक रहकर प्रतिक्षण, प्रतिसमय स्वतंत्रता की अखण्ड ज्योति प्रज्वलित करने के लिए तत्पर रहता है, किन्तु दूसरा एक भाव है-औदयिकभाव, जो कर्मोदय से निष्पन्न होने के कारण आत्मा की इस स्वतंत्रता को बाधित करता रहता है। वह जीव को परतंत्र बनाये रखने का अनवरत प्रयत्न करता रहता है। अतः पारिणामिक भाव और औदयिक भाव. इन दोनों में सतत संघर्ष चलता रहता है। प्रमादवशं जीव औदयिक भाव से प्रभावित होकर, पारिणामिक भाव से हट कर बार-बार औदयिकभाव में आता है, वापस जीवत्वरूप शुद्ध पारिणामिक भाव में आता है। इस प्रकार इन दोनों भावों की रस्साकसी चलती रहती है। इस संघर्ष में जीव का अखण्ड चैतन्य भाव खण्डित हो जाता है। उस अखण्डचेतना के तीन रूप बन जाते हैं-(१) कर्मचेतना, (२) कर्मफलचेतना और (३) ज्ञानचेतना। हमारी ज्ञानचेतना अपने दोनों प्रतिपक्षियों में से कभी कर्मचेतना के साथ और कभी कर्म-फलचेतना के साथ मिल जाती है, समझौता कर लेती है,२ परभाव को स्वभाव मानकर चलती है। ___ अतः प्रत्येक आत्मार्थी मुमुक्षु का कर्तव्य है कि केवल पारिणामिक भाव के माध्यम से ज्ञानचेतना में सतत जागरूक एवं लीन रहकर कर्मबन्धन में डालने वाली पारतंत्र्यकारिणी, अखण्ड चेतना को खण्डित करने वाली तथा औदयिक भावों की सहयोगिनी, इन दोनों चेतनाओं को पास में न फटकने दे, इन दोनों चेतनाओं (कर्मचेतना और कर्मफलचेतना) को कमजोर कर दे ताकि वे न तो ज्ञानचेतना को दबा सकें और न ही जीव पर हावी हों। औदयिक भाव से दूर रहने के लिए कर्मबन्ध से सतत सावधान रहना नितान्त आवश्यक है। R. (क) मोहस्सेव उवसमो, खओवसमो चउण्ह घाईणं। खय-परिणामिय-उदया, अट्ठण्ह वि होंति कम्माणं॥ -पंचसंग्रह भा. ३, गा. २५ (ख) पंचसंग्रह भा. ३, गा. २५ का विवेचन, पृ. ९१-९२ B. प्रेक्षाध्यान (मासिक) मार्च १९९३ के अंक से भावांशग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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