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________________ ४९६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ कहते हैं । पारिणामिक भाव का प्रयोजन द्रव्य का स्वरूप लाभमात्र है। इसमें कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा नहीं होती है। घट-पट पारिणामिकभाव के मुख्य दो भेद हैं- सादि, अनादि । घी, गुड़, चावल, आदि पदार्थों की नई-पुरानी आदि अवस्थाएँ तथा वर्षधर - पर्वत, भवन, विमान, कूट और रत्नप्रभा नरकभूमि आदि पृथ्वियों की पुद्गलों के मिलने-बिखरने से होने वाली अवस्थाएँ तथा गन्धर्व-नगर, दिग्दाह, उल्कापात, धूमस, विद्युत्, आँधी, चन्द्रपरिवेध, सूर्य-परिवेध, चन्द्र-सूर्यग्रहण, इन्द्रधनुष इत्यादि नाना अवस्थाएँ सादि 'पारिणामिक भाव हैं। क्योंकि उस-उस प्रकार के परिणाम अमुक-अमुक समय होते हैं और उनका नाश होता है अथवा उनमें पुद्गलों के मिलने-बिखरने से हीनाधिक्य पर्याय परिवर्तन हुआ करते हैं। लोकस्थिति, अलोकस्थिति, भव्यत्व, अभव्यत्व, जीवत्व, धर्मास्तिकायत्व इत्यादि रूप जो भाव हैं, वे अनादि पारिणामिक भाव हैं; क्योंकि उनके स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता । सदैव अपने-अपने स्वरूप में ही रहते हैं । १ सान्निपातिक भाव : स्वरूप, प्रकार और कार्य अनेक भावों के मिलने से निष्पन्न भाव को सान्निपातिक भाव कहते हैं । तात्पर्य यह है कि औदयिक आदि भावों के दो आदि के संयोग से उत्पन्न हुई, अवस्थाविशेष को सान्निपातिक भाव कहते हैं । निष्कर्ष यह है कि इन पूर्वोक्त पांच भावों में से एक-एक भाव को मूलभाव तथा दो या दो से अधिक मिले हुए (संयुक्त) भावों को सान्निपातिक भाव समझना चाहिए । वस्तुतः सान्निपातिक भाव कोई स्वतंत्र भाव नहीं है; अपितु यह पांच भावों में से दो या दो से अधिक भावों के संयोग से होता है । . पांच भावों के कुल भेद त्रेपन पांच भावों में से पूर्वोक्त प्रत्येक भाव के भेद संक्षेप में इस प्रकार हैंऔपशमिक भाव के ५, क्षायोपशमिक भाव के १८, क्षायिक भाव के ९, औदयिक भाव के २१ और पारिणामिक भाव के ३ भेद हैं। यों कुल ५३ भेद हुए । १. (क) परिणामिए दुविहे पण्णत्ते तं. - साइपरिणामिए य, अणाइपरिणामिए य । अणाइ परिणामिए, जीवत्थिकाए - भवसिद्धिआ अभवसिद्धिआ । से तं अणाइ . परिणामिए । - अनुयोगद्वारसूत्र २४८, २५० (ख) पंचसंग्रह भा. २ विवेचन, पृ. १५, १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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