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________________ औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४९५ मति - अज्ञानलब्धि, श्रुत- अज्ञानलब्धि, विभंगज्ञानलब्धि, सम्यग्दर्शनलब्धि, क्षायोपशमिक सम्यग्मिथ्यादर्शनलब्धि', क्षायोपशमिक सामायिकलब्धि, क्षायोपशमिक छेदोपस्थापनीय लब्धि, क्षायोपशमिक परिहारविशुद्धि लब्धि, क्षायोपशमिक सूक्ष्मसम्परायलब्धि, क्षायोपशमिक देशविरतिलब्धि, क्षायोपशमिक दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, उपभोगलब्धि, वीर्यलब्धिर, पण्डितवीर्यलब्धि, बालवीर्यलब्धि, बालपण्डित-वीर्यलब्धि, श्रोत्रेन्द्रियलब्धि, चक्षुरिन्द्रियलब्धि, घ्राणेन्द्रियलब्धि, रसनेन्द्रियलब्धि, स्पर्शनेन्द्रियलब्धि‍ इत्यादि । ये सभी भाव घातिकर्मों के क्षयोपशम भाव से निष्पन्न होने के कारण क्षयोपशमनिष्पन्न कहलाते हैं। (५) पारिणामिक भाव का अर्थ है - परिणमित होना । अवस्थित वस्तु का पूर्व अवस्था के त्याग करने के द्वारा, उत्तर अवस्था को कथंचित् प्राप्त होना । अर्थात्-अपने मूल स्वभाव को छोड़े बिना पूर्व अवस्था के त्यागपूर्वक उत्तर -- अवस्था को प्राप्त करना परिणाम कहलाता है और परिणाम को ही पारिणामिक भाव (पृष्ठ ४९४ का शेष) फल न दे सके। (२) उदय प्राप्त अंश का क्षय और उदय- अप्राप्त अंश को परिणामानुसार हीन शक्ति वाला करना उपशम है। पहला अर्थ मोहनीय कर्म में और दूसरा शेष तीन घातिकर्मों में घटित होता है । अघातिकर्म किसी गुण को आच्छादित नहीं करते, इससे उनका क्षयोपशम नहीं होता। वे तो अधिक रस और अधिक स्थिति • वाले हों, तभी अपना कार्य कर सकते हैं। - पंचसंग्रह भा. २, पृ. १४ १. मिथ्यात्व का उदय न होने से क्षयोपशम को सम्यग् मिथ्यादर्शनलब्धि में गिना है । २. मिथ्यात्वी के वीर्य - व्यापार को बालवीर्य, सम्यक्त्वी और देशविरति के वीर्य व्यापार . को बालपण्डितवीर्य और सर्वविरति के वीर्य व्यापार को पण्डित वीर्य कहा जाता है। सामान्यत: सभी लब्धियों का सामान्य से वीर्यलब्धि में समावेश हो जाता है। ३. श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि आदि ५ लब्धियों का मतिज्ञान लब्धि में समावेश हो जाता है। - पंचसंग्रह २. पृ. १५ ४. (क) खओवसमिए दुविहे पण्णत्ते, तं. खओवसमिए य, खओवसय- णिप्फण्णे य । खओवसमिआ आभिणिबोहियणाणलद्धी, जाव खओ. मणपज्जवणाणलद्धी, खओवसमिआ मइ - अण्णाणलद्धी, ख. सुअ. अ. लद्धी, ख. विभंगणाणलद्धी, ख. चक्खुदंसणलद्धी जाव ओहीदंसणलद्धी एवं सम्मदंसणलद्धी, ख. सामाइयचरित्तलद्धी, चरित्ताचरित्तलद्धी, ख. दाणलद्धी एवं लाभ. भोग, उपभोग ख, वीरियलद्धी । से तं. खओ. । - अनु. २४२, २४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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