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________________ कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता ३१ कषाय से आकृष्ट कर लेती है, तब वह कर्म का कर्ता-भोक्ता भी बनती है। इस दृष्टि से कर्म और आत्मा का सम्बन्ध (बन्ध) तीन प्रकार का बनता है (१) आत्मा के अशुद्ध उपयोगरूप परिणमन से होने वाला भावबन्ध। यह बन्ध अरूपी के साथ अरूपी का है। अर्थात् यह सम्बन्ध परिणाम और परिणामी का है। जिसमें कर्ता भी आत्मा है और परिणमनरूप कर्म भी आत्मा है। वस्तुतः निश्चय से जो बन्ध है, वह इसी कोटि का अशुद्ध अथवा विभाव-परिणमनरूप बन्ध है। परिणामीपन आत्मा का स्वभाव है, पर जब वह निजद्रव्य को छोड़कर परद्रव्य में (विभाव में) परिणमन करता है, तब वह अपना स्वभावसिद्ध परिणाम छोड़कर परभाव में विशेषता सहित परिणमन करता है, यह भावकर्मबन्ध का हेतु है। विभाव परिणमन संसार का बीज है, और स्वभाव परिणमन मोक्ष का। (२) पुद्गल के साथ नूतन कर्मवर्गणाओं का सम्बन्ध, यह द्रव्यकर्मबन्ध है। यह सम्बन्ध रूपी के साथ रूपी का है। आत्मप्रदेश में एक क्षेत्रावगाह रूप से जो पहले बंधी हुई कर्मवर्गणाएँ पड़ी हैं, उनमें नई कर्मवर्गणाओं का रागद्वेष या स्निग्ध रूक्षभाव द्वारा आकर्षित होना ही द्रव्य बन्ध है। (३) तीसरे प्रकार का कर्मबन्ध है-आत्मा के साथ कर्मवर्गणा का संयोगसम्बन्ध। यह है-रूपी और अरूपी का सम्बन्ध। . चारों ओर से होने वाले कर्मबन्धों से सावधान रहे - अगर व्यक्ति सजग होकर चले, ज्ञाताद्रष्टा और परपदार्थों के प्रति निरपेक्ष, नेर्लेप, नि:संग होकर राग-द्वेष या प्रीति-अप्रीति के भावों से हटकर चले तो चारों भोर से होने वाले कर्मबन्धों के प्रहार से बहुत अंशों में बच सकता है। साधक को ... (क) कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ. १७ (ख) कइविहे णं भंते ! बंधे पण्णते? गोयमा ! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा इरियावहिया बंधे य, संपराइय बंधे य। -भगवती सूत्र श.८, उ.८. (ग) सहजं तु मलं (कर्म) विद्यात् कर्मसम्बन्ध-योग्यताम् । आत्मनोऽनादिमत्त्वेऽपि, नायमेनां विना यतः ॥ अनादिमानपि ह्येष, बन्धत्वं नातिवर्तते । योग्यतामन्तरेणाऽपि, भावेऽस्यातिसंगता ॥ ततः शुभमनुष्ठानं, सर्वमेव हि देहिनाम् । विनिवृत्ताग्रहत्वेन, तथाऽबन्धेऽपि तत्त्वतः ॥ -योगविंशिका Jain Education Internation For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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