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३० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ रखना चाहिए। विपत्ति आने पर विषादमग्न और सम्पदा में हर्षावेश से उत्मत्त होना, कर्मबन्ध का कारण है। ___ कोई भी वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, परिस्थिति या क्षेत्र अपने आप में अच्छा या बुरा नहीं होता। व्यक्ति उस समय समभाव न रखकर, ज्ञाताद्रष्टा न बनकर प्रीति-अप्रीति, राग-द्वेष, आसक्ति-घृणा, अपना-परायापन करता रहता है और व्यर्थ ही कर्मबन्ध के जाल में फँसता रहता है। इसीलिए रागबन्ध और द्वेषबन्ध या प्रेयबन्ध और द्वेषबन्ध शास्त्रकारों ने हेय बताया है।
इसीलिए विभिन्न भावों और लेश्याओं को लेकर बन्ध के तीन प्रकार भगवतीसूत्र में और बताए हैं। वे हैं-जीवप्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और परम्परबन्ध। जीव के या अन्य जीवों के प्रयोग या प्रेरणा से या मनोव्यापार आदि से होने वाला बन्ध जीवप्रयोगबन्ध है। अनन्तरबन्ध वह है-जो एक बन्ध के बाद अथवा उस बन्ध के साथ-साथ होता रहता है। और परम्परबन्ध इस जन्म का पहले का बन्ध या जन्मजन्मान्तर से आया हुआ बन्ध है, जिसे ऋणानुबन्ध भी कहा जा सकता है। इन तीनों प्रकार के बन्धों से भी प्रत्येक आत्मार्थी मानव को सावधान रहना चाहिए।
__आध्यात्मिक दृष्टि से बन्ध का नापतौल आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा और कर्म के बन्ध का विश्लेषण हमने कर्मविज्ञान के चतुर्थ खण्ड में किया है। शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से तो आत्मा और कर्म का बन्ध हो ही नहीं सकता, किन्तु व्यवहारनय अथवा अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा भी वैभाविक भावों से जब ग्रस्त हो जाती है, और कर्मपुद्गलों को रागद्वेष या
१. (क) कइविहेणं भंते ! बंधे पण्णते?
मागंदिय पुत्ता ! दुविहे बधे पण्णत्ते, तं.-दव्वबंधे य भावबंधे य। दव्वबंधे णं कइविहे पण्णते? मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, तं.-पओगबंधे य वीससाबंधे य। पओग-वीससाबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णते?
मागंदियपुत्ता दुविहे पण्णत्ते, तं.-सिढिल बंधणबद्धे य, घणिय-बंधणबद्धे य। (ख) भावबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते?
मागंदियपुत्ता ! दुविहे पण्णत्ते, तं.-मूलपगडिबंधे य, उत्तरपगडिबंधे य। एवं जाव वेमाणियाणं।"
-भगवतीसूत्र श. १८,उ.३/सू. ६२०. २. दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-पेजबंधे चेव दोसबंधे चेव।-स्थानांग स्था. २ उ. ४। ३. कइविहे णं भंते ! बंधे पण्णत्ते? गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णते, 'तं.-जीवप्पओग बंधे, अणंतरबंधे, परंपरबंधे।
-भगवती सूत्र श. २, उ.७
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