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कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता २९ वैसे कर्मशास्त्रीय प्रमाण आगमों में यत्र-तत्र मिलते हैं कि मनुष्य को ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यक्लोक अथवा सभी दिशा-विदिशाओं से आने वाले कर्मस्रोतों का भलीभांति प्रतिलेखन, प्रत्यवेक्षण करना चाहिए। ताकि कहीं भी अपने निमित्त से कर्मबन्ध न हो।
___पुण्यकर्म भी उपादेय नहीं, इच्छनीय नहीं शुभ कर्म करने या पुण्यकृत्य करने की इच्छा भी, आसक्ति भी ठीक नहीं है। अथवा अपने पापों को छिपाने, ढकने की नीयत से कुछ राहत काम करने की वृत्ति भी इतनी अच्छी नहीं है। पुण्य काम्य नहीं। आत्मदर्शन की खोज में लगा हुआ व्यक्ति आत्मदर्शन से विमुख होकर पुण्य चाहे, यह अच्छा नहीं है। योगीन्दु' कहते हैं-"पुण्य से वैभव, वैभव से अहंकार, अहंकार से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से पाप होता है। इसलिए ऐसा पुण्य हमें नहीं चाहिए।"२
कर्मबन्ध के विभिन्न पहलू मूल में कर्मबन्ध के दो प्रकार बताए हैं-द्रव्यबन्ध और भावबन्ध। किन्तु उनके भी दो प्रकार है-प्रयोगबन्ध (चलाकर बन्ध करना) और विस्त्रसाबन्ध (स्वभावतः बन्ध होना)। प्रयोगबन्ध भी जीवन में प्रतिक्षण द्रव्य-भाव कर्मबन्ध के रूप में सभी संसारी जीवों के हो रहा है, होगा, और हो चुका है। उसके भी दो प्रकार शास्त्र में बताए गए हैं-शिथिलबन्धनबद्ध और सघनबन्धनबद्ध। इसी प्रकार भावबन्ध के मूलप्रकृतिबन्ध और उत्तरप्रकृतिबन्ध के भेद से दो प्रकार हैं।
भावबन्ध का कारण : परिणाम - समस्त संसारी जीवों के शुभाशुभ परिणामों से ये भावबन्ध होते हैं। इसलिए परिणामों पर बहुत ही चौकसी रखना अनिवार्य है। परिणामों से ही यतना-अयतना, विवेक-अविवेक, पुण्य-पाप, सुखद-दुःखद कृत्य होते हैं। इसलिए परिणामों का नापतौल प्रतिक्षण करते रहना चाहिए। परिणामे बन्धः' इस सूत्र को प्रतिक्षण स्मरण
१. उड्ढं सोता अहे सोया तिरियं सोया वियाहिया ।
एए सोया वियक्खाया, जेहिं संगति पासहा ॥ -आचारांग श्रु. १, अ. ५, उ.६ २. (क) परमात्म प्रकाश २/५७,५८ .. (ख) पुणेण होइ विहवो, विहवेण मओ, मएण मदमोहो ।
मदमोहेण य पावं, ता पुण्णं अम्ह मा होउ ॥ -परमात्म प्रकाश २/६० Jain Education international For Personal & Private Use Only
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