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गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४४९ प्रकृतियाँ तिर्यंचों में ही उदययोग्य हैं, और तिर्यंचों को पहले के पांच गुणस्थान ही हो सकते हैं, छठे आदि आगे के गुणस्थान नहीं होते। तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का जब तक उदय रहता है, तब तक छठे गुणस्थान से लेकर आगे के किसी भी गुणस्थान की प्राप्ति नहीं हो सकती। अर्थात्-प्रत्याख्यानावरण कषायों के उदय के रहते सर्वविरति (सकल संयम) का पालन नहीं हो सकता और न ही छठा गुणस्थान प्राप्त हो सकता है। अतएव तिर्यञ्चगति आदि ४ प्रकृतियों तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का पंचम गुणस्थान के अन्तिम समय में उदय-विच्छेद हो जाने से छठे गुणस्थान में ये ८ प्रकृतियाँ उदययोग्य नहीं मानी जातीं। ___ छठे गुणस्थान में आहारकद्विक का उदय उस समय पाया जाता है, जब कोई चतुर्दशपूर्वधारक मुनि किसी सूक्ष्म-विषय-सम्बन्धी शंका के समाधान हेतु निकट में किसी सर्वज्ञ के न होने की स्थिति में, औदारिक शरीर से क्षेत्रान्तर में जाना अशक्य समझ कर अपनी विशिष्ट आहारक लब्धि के प्रयोग द्वारा शुभ, सुन्दर, निरवद्य और अव्याघाती (मुंड हाथ के) आहारक शरीर का निर्माण करते हैं और ऐसे शरीर से क्षेत्रान्तरस्थित सर्वज्ञ के पास पहुँच कर उनसे शंका का निवारण कर फिर अपने स्थान पर वापस आ जाते हैं। - (७) सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उदययोग्य ७६ कर्मप्रकृतियाँ हैं। सातवाँ गुणस्थान अप्रमादी साधु का है। इसलिए छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में प्रमादरूप जो स्त्यानर्द्धि-त्रिक (निद्रानिद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानर्द्धि) तथा
आहारक-द्विक (आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग) हैं, इन ५ प्रकृतियों का उदय प्रमत्त-संयत गुणस्थान में ही होता है। स्त्यानर्द्धित्रिक भी प्रमादरूप है, और आहारकद्विक के द्वारा आहारक लब्धि का प्रयोग भी प्रमादरूप है; क्योंकि लब्धि का प्रयोगकर्ता उत्सुक हो ही जाता है और उत्सुकता होते ही एकाग्रता या स्थिरता (आत्म-स्वरूप में स्थिरता) भंग हो जाती है, इसी का नाम ही प्रमाद है। इसलिए इन पांच प्रकृतियों का उदय-विच्छेद छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है। अतः छठे गुणस्थान की उदययोग्य ८१ प्रकृतियों में से इन ५ प्रकृतियों को कम करने
१. (क) अट्ठच्छेओ इगसी, पमत्ति, आहार-जुगल-पक्खेवा।
थीणतिगाहारग-दुग छेओ, छस्सयरि अपमत्ते॥१७॥ ____ -द्वितीय कर्मग्रन्थ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. १७ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. ८५ से ८७ (ग) शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं चतुर्दश-पूर्वधरस्यैव। -तत्त्वार्थ सूत्र २/४९ (घ) आहारक लब्धि वाला साधु आहारक शरीर बनाने की इच्छा करता हुआ
यथास्थूल पूर्वबद्ध आहारक शरीर नामकर्म के प्रभूत पुद्गलों की निर्जरा करता है। आहारक शरीर बनाते समय आहारक-समुद्घात भी होता है।
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