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४४८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ ___ यह ध्यान रहे कि जिनको जन्म से लेकर मरण-पर्यन्त यावजीवन वैक्रिय शरीर
और वैक्रिय अंगोपांग नामकर्म का उदय रहता है, ऐसे देवों और नारकों की अपेक्षा. से यहाँ उदय विचार किया गया है। चूंकि मनुष्यों और तिर्यंचों को कुछ समय के लिए इन दो प्रकृतियों का उदय हो सकता है, वह भी सभी मनुष्यों और तिर्यञ्चों को नहीं। इसलिए मनुष्यों की अपेक्षा से छठे, और तिर्यंचों की अपेक्षा से पंचम गुणस्थान में उक्त दोनों प्रकृतियों का उदय सम्भव होने पर भी उसकी विवक्षा नहीं की गई है। अतः भव-प्रत्ययिक वैक्रियद्विक का उदय-विच्छेद पंचम गुणस्थान में माना है, गुणप्रत्ययिक उत्तरवैक्रिय द्विक की विवक्षा नहीं की गई है। . ... ___ वस्तुतः पंचम आदि गुणस्थानवी जीवों के परिणाम इतने शुद्ध हो जाते हैं कि दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति नामकर्म, ये तीन प्रकृतियाँ आदि के चार गुणस्थानों में ही उदय को प्राप्त हो सकती हैं, किन्तु पंचम आदि आगे के गुणस्थानों में इनका उदय होना सम्भव नहीं है।
इसलिए पंचम गुणस्थान में ८७ प्रकृतियाँ ही उदययोग्य मानी गई हैं।१ . .
(६) छठे गुणस्थान में ८१ प्रकृतियाँ उदय-योग्य होती हैं। पंचम गुणस्थान में उदययोग्य ८७ प्रकृतियों में से तिर्यंचगति, तिर्यंचायु, नीचगोत्र, उद्योत-नामकर्म और प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क इन आठ प्रकृतियों का उदय-विच्छेदरे पंचम गुणस्थान के अन्तिम समय में ही हो जाता है। इसलिए इन ८ प्रकृतियों को ८७ प्रकृतियों में से कम करने पर ७९ प्रकृतियाँ उदययोग्यः शेष रहती हैं, तत्पश्चात् आहारकद्विक (आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग नामकर्म) की दो प्रकृतियों का उदय छठे गुणस्थान में ही होने से पूर्वोक्त ७९ में इन २ प्रकृतियों को मिलाने से कुल ८१ प्रकृतियों का उदय छठे गुणस्थान में माना गया है। तिर्यञ्चगति आदि ४
१. (क) मणु-तिरिणुपुव्विं विउवट्ठ दुहम अणाइजदुग सतरछेओ।
सगसीह देसिं तिरिगइ-आउ निउज्जोय तिकसाया॥१६॥ -द्वितीय कर्मग्रन्थ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. १६ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ.८१ से ८४ (ग) अविरत जीव विरति रहित होने से चारों गति सम्बन्धी आयु का बन्ध कर
सकता है। अतः परभव सम्बन्धी शरीर ग्रहण करने हेतु विग्रह गति से जाते समय चारों आनुपूर्वियों में से यथायोग्य उस-उस नाम वाले आनुपूर्वी नामक म का उदय अविरत सम्यग्दृष्टि को होता है।
-संपादक (घ) तुलना करें-अयदे वि-दिय कसाया वेगुव्विय छक्क णिरय देवाऊ। .
मणुय-तिरियाणुपुव्वी दुब्भगऽणादेज अजसयं॥ -गोम्मटसार क. २६६ २. देसे तदियकसाया तिरियाउज्जोव-णीच- तिरियगदी। -गोम्मटसार कर्मकाण्ड, २६७
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