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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४४७ प्रकृतियों में मिश्र मोहनीय कर्म को मिलाने से कुल १०० प्रकृतियों का उदय तृतीय गुणस्थान में माना जाता है। (४) चौथे गणस्थान में वर्तमान जीवों के १०४ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। तीसरे गुणस्थान में जिन १०० प्रकृतियों का उदय होता है, उनमें से केवल मिश्रमोहनीयरे कर्म का ही उदय चौथे गुणस्थान में नहीं होता। शेष ९९ कर्म-प्रकृतियों का उदय तो होता ही है। तथा सम्यक्त्व-मोहनीय कर्म के उदय का और चारों आनुपूर्वियों के उदय का भी सम्भव है। इस प्रकार ९९ और १+४=५ प्रकृतियाँ मिलकर कुल १०४ प्रकृतियों का उदय चतुर्थ गुणस्थान में सम्भव है। (५) पंचम गुणस्थान में ८७ कर्मप्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। चौथे गुणस्थान में उदययोग्य १०४ प्रकृतियों में से अप्रत्याख्यानावरण-चतुष्क, मनुष्यानुपूर्वी, तिर्यश्चानुपूर्वी, दुर्भगनामकर्म, अनादेयनामकर्म, अयश:कीर्ति नामकर्म तथा वैक्रियाष्टक (देवगति, देवानुपूर्वी, नरकगति, नरकानुपूर्वी, देवायु, नरकायु, वैक्रिय शरीर और वैक्रिय अंगोपांग), इन ४+२+१+१+१+८=१७ कर्मप्रकृतियों का चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय में अन्त हो जाता है। अतः चतुर्थ गुणस्थान की उदययोग्य १०४ प्रकृतियों में से उक्त १७ प्रकृतियों को घटाने से शेष ८७ प्रकृतियों का उदय पांचवें गुणस्थान में होता है। अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का उदय चौथे गुणस्थान तक रहता है, जब तक उक्त कषायचतुष्क का उदय रहता है, तब तक जीवों को देशविरति आदि गुणस्थानों की प्राप्ति नहीं हो सकती। पंचम गुणस्थान में तिर्यंचों का होना सम्भव है। पांचवें से लेकर आगे के गुणस्थान मनुष्यों को ही हो सकते हैं, देवों और नारकों को नहीं। तथा किसी भी आनुपूर्वी नामकर्म के उदय के समय जीवों को पंचम आदि गुणस्थान होना सम्भव नहीं है। यही कारण है कि चतुर्थ गुणस्थान के अन्तिम समय में इनका उदय-विच्छेद माना गया है। अतः नरकानुपूर्वी और देवानुपूर्वी-इन दो आनुपूर्वियों का उदय भी पंचम-गुणस्थान में नहीं होता। १. (क) सासणे अणेइंदी थावर-वियलं च उदय-वोच्छिण्णा । - -गोम्मटसार (क.) २६५ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. १४, १५ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. ७७ से ८१ तक (ग) सुहुम-तिगायव मिच्छं, मिच्छंतं सासणे इगारसयं ।। णिरयाणुपुव्विणुदया अण-थावर-इग-विगल-अंतो॥ १४॥ मीसे सयमणुपुव्वीणुदया मीसोदएण मीसंतो। चउसयमजए सम्माणुपुव्वि-खेवा बियकसाया॥ १५॥ -द्वितीय कर्मग्रन्थ १. मिस्से मिस्सं च उदय वोच्छिण्णा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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