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________________ ४५० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ से सातवें गुणस्थान में ७६ प्रकृतियाँ उदय योग्य रह जाती हैं। यद्यपि आहारक शरीर का निर्माण कर लेने के पश्चात् भी कोई मुनि विशुद्ध परिणामों से आहारक शरीरधारी होने पर भी सातवें गुणस्थान को पा सकते हैं। परन्तु ऐसा क्वचित् ही तथा अत्यल्पकाल के लिये ही होता है। अतएव सप्तम गुणस्थान में आहारकद्विकों के उदय को नहीं माना है । १ (८) आठवें गुणस्थान में उदययोग्य ७२ प्रकृतियाँ माना गईं हैं। सातवें गुणस्थान में उदययोग्य ७६ प्रकृतियों में से उसके अन्तिम समय में सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का तथा अन्तिम संहनन - त्रिक (अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त संहनन) का उदय-विच्छेद हो जाने से सप्तम गुणस्थान की उदययोग्य ७६ प्रकृतियों में उक्त चार प्रकृतियों को कम करने से आठवें गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों का उदय होता है। सातवें गुणस्थान से आगे के गुणस्थान श्रेणी आरोहण करने वाले मुनि के होते हैं. और श्रेणी - आरोहण वही मुनि कर सकता है, जिसके सम्यक्त्व - मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय हो जाता है, दूसरा नहीं। जब तक सम्यक्त्व - मोहनीय कर्म का उदय रहता है, तब तक श्रेणी-आरोहण नहीं किया जा सकता। अतएव जो साधक सम्यक्त्व मोहनीय का उपशम करके श्रेणी - आरोहण करता है, उसे उपशम श्रेणी वाला और जो जीव उसका क्षय करके श्रेणी - आरोहण करता है, उसे क्षपक श्रेणी वाला कहते हैं। दूसरी बात - श्रेणी - आरोहण की क्षमता आदि के तीन संहनन (वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच और नाराच संघयण) वाले जीवों में ही होती है। क्योंकि अन्तिम तीन संहनन (अर्धनाराच, कीलक और सेवार्तसंहनन) वाले मंद विशुद्धि वाले होते हैं, उनकी क्षमता श्रेणी - आरोहण करने योग्य नहीं होती। इसीलिए सम्यक्त्व मोहनीय का तथा अन्तिम तीन संहनन का सप्तम गुणस्थान के अन्तिम समय में उदय - विच्छेद हो जाता है। अष्टम गुणस्थान में इन ४ प्रकृतियों का उदय नहीं होता । फलतः ७२ प्रकृतियाँ ही उसमें उदययोग्य रहती हैं। (९) नौवें अनिवृत्तिकरण या अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में सिर्फ ६६ प्रकृतियों का ही उदय होता है। वस्तुतः गुणस्थान- क्रम के बढ़ने के साथ आत्मपरिणामों की विशुद्धि भी बढ़ती जाती है। फलतः नौवें गुणस्थान से लेकर आगे के १. (क) द्वितीय कर्मग्रन्थ, विवेचन गा. १७ ( मरुधरकेसरी) पृ. ८७ (ख) छट्टे आहारदुगं थीणतियं उदय - वोच्छिण्णा । (ग) अपमत्ते सम्मतं अंतिम-तिय संहदी। Jain Education International - गोम्मटसार कर्मकांड गा. २६७ - गोम्मटसार कर्मकाण्ड २६८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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