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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता - उदय - उदीरणा प्ररूपणा ४३३ उसी रूप में (जिस रूप में बंधा है, उसी रूप में) स्थित रहता है । इस स्थिर रहने के समय को 'अबाधाकाल' कहते हैं। जिस प्रकार वर्तमान में पानी कितना ही खौल रहा हो, लेकिन उसमें पकने के लिये डाली गई वस्तु कुछ समय के लिए तले में बैठ जाती है, और फिर उसके बाद पकनी शुरू होती है। इस प्रकार तले में बैठने की स्थिति और समय ( कालावधि) को अबाधाकाल समझना चाहिए। किन्तु यह अबाधाकाल सभी कर्मों का अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न होता है । जब तक किसी कर्म का अबाधाकाल पूर्ण नहीं होता, तब तक वह कर्म सत्ता में पड़ा रहता है। वह उस जीव को तब तक (उदय में न आने तक) सुख या दुःख किसी प्रकार का अनुभव नहीं कराता । कर्म का बन्ध हो जाने के बाद के सम्बन्ध को बन्ध नहीं कहा जाता। क्योंकि बन्ध होने के बाद कर्म का सत्ता में समावेश हो जाता है। आशय यह है कि नवीन कर्मों के बंधने को बंध कहा गया हैं, किन्तु सत्तारूप में विद्यमान अथवा स्वभावान्तर में संक्रमित कर्मों को बन्ध नहीं कहा जाता । सत्ता का स्वरूप और दो रूप इस अभिप्राय से कर्म-ग्रहण मात्र को बन्ध न कहकर अभिनव कर्मग्रहण को बन्ध कहा गया है। इसी तरह आत्मा के साथ बंधे हुए कर्म जब परिणामविशेष से एक स्वभाव का परित्याग कर स्वभावान्तर को प्राप्त कर लेते हैं, तब वह स्वभावान्तर संक्रमण कहलाता है, . बन्ध नहीं । इस प्रकार बन्ध या संक्रमण आदि के द्वारा जिन कर्मपुद्गलों (आकाशप्रदेश में अवस्थित कर्मवर्गणा के पुद्गलों) ने अपने स्वरूप ( कर्मत्व) को प्राप्त किया है, उन कर्मपुद्गलों का उसी कर्मस्वरूप में आत्मा से लगा रहना कर्मों की सत्ता या सत्त्व है। अर्थात्-बंधादि द्वारा (यानी बंध के समय ) स्वस्वरूप को प्राप्त (जो कर्मपुद्गल जिस कर्मस्वरूप में परिणत) हैं, उन कर्मपरमाणु पुद्गलों की (उसी रूप में) स्थिति, अवस्थान, सद्भाव या विद्यमानता सत्ता 'कहलाती है। इस प्रकार सत्ता के दो रूप हुए एक बन्धसत्ता और दूसरी संक्रमणसत्ता । बन्ध के समय जो कर्मपुद्गल जिस कर्मस्वरूप में परिणत होते हैं, उनका उसी कर्मस्वरूप में आत्मा के साथ संलग्न रहना बन्धसत्ता है, तथा उन्हीं कर्मपुद्गलों का पूर्वस्वरूप को छोड़कर दूसरे कर्मस्वरूप में परिवर्तित होकर आत्मा के साथ लगे रहना संक्रमणसत्ता है। १. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ गा. २५ विवेचन ( मरुधरकेसरीजी), पृ. ९९, १०० (ख) सत्ता कम्माण ठिई बंधाई - लद्ध - अत्त-लाभाणं । Jain Education International - कर्मग्रन्थ भा. २ गा. २५ का पूर्वार्द्ध For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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