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________________ ४३२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ (१४) चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान में बन्ध के कारणभूत योग का भी अभाव होने से न तो किसी कर्म का बन्ध होता है और न बन्धविच्छेद ही। इसलिए चौदहवें गुणस्थान में अबन्धकत्व अवस्था प्राप्त होती है। बन्ध की उत्तरोत्तर न्यूनता और बन्धशून्यता ही जीवन का लक्ष्य सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के सभी गुणस्थानों में परिणाम (अध्यवसाय) इतने शुद्ध और स्थिर हो जाते हैं कि उन गुणस्थानों में आयु का बन्ध नहीं होता। सातवें गुणस्थान में देवायु बन्ध का प्रारम्भ तो होता ही नहीं, उस बन्ध की कदाचित् समाप्ति होती है, उस अपेक्षा से देवायुबन्ध की गणना और सम्भावना की गई है। परन्तु एक बात स्पष्ट प्रतीत होती है कि प्रथम गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक एकाध गुणस्थान को छोड़कर उत्तरोत्तर कर्मबन्ध कम होते जाते हैं, आत्मशुद्धि की वृद्धि एवं आत्मगुणों का विकास होता जाता है। अतः आत्मार्थी जिज्ञासु एवं मुमुक्षु के लिए गुणस्थानों के माध्यम से बन्ध की उत्तरोत्तर न्यूनता और अन्त में बन्ध-शून्यता बहुत ही आशास्पद एवं प्रेरणादायी है। अतः इसका अत्यन्त बारीकी से, अध्ययन, मनन एवं चिन्तन करना आवश्यक है। वस्तुतः अबन्धकत्व अवस्था प्राप्त करना ही जीव का लक्ष्य है, जिसकी प्राप्ति के पश्चात् जीव अपने शुद्ध ज्ञानादिमय स्वरूप में रमण करता रहे, यही उसकी सबसे बड़ी सिद्धि और उपलब्धि है। (२) सत्ताधिकार (२) चौदह गुणस्थानों (कर्म) सत्ता की प्ररूपणा बन्ध और सत्ता में अन्तर सत्ताधिकार के द्वारा यह बताया गया है कि किस गुणस्थान में कौन-से कर्म की कितनी प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। आशय यह है कि बन्ध का एक लक्षण कर्मवैज्ञानिकों ने किया है-'नवीन कर्मों का ग्रहण करना बन्ध है।' जो कर्म बंध गए हैं, वे जब तक उदय में आकर फल नहीं देते, तब तक वे पुनः नवीनरूप से नहीं बंधते, वे सत्ता में पड़े रहते हैं। कर्म का बन्ध होते ही तत्काल उसका फल भोग (वेदन) नहीं होता, किन्तु उसकी जितनी स्थिति है, कालावधि है उसके अनुसार वह १. (क) चउदसणुच्चस नाण विग्घदसगं नि सोलसुच्छेओ। तिसु सायबंध छेओ सजोगिबंधं तुणंतो अ ॥१२॥ -कर्मग्रन्थ भा. २ (ख) कर्मग्रन्थ भा. २, गा. १२ विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ६९, ७० (ग) पढम विग्धं दंसणचउ जस उच्चं च सुहुमंते ॥१०१॥ उवसंतखीणमोहे जोगिम्हि य सममियदिट्ठिदी सारं ॥१०२।। . -गोम्मटसार कर्मकाण्ड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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