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________________ ४३४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ सत्ता का परिष्कृत स्वरूप और प्रकार इसे स्पष्टरूप से समझ लें- जब से आत्मा के साथ मिथ्यात्व आदि हेतुओं से जो कर्मवर्गणा के पुद्गल-स्कन्ध सम्बद्ध हो जाते हैं, तब से उसको 'कर्म' कहने लगते हैं, तभी से उस कर्म की सत्ता मानी जाती है। मान लो, किसी के नरकगति का बन्ध हुआ, वह बद्ध कर्म जब तक उदय में न आए और उसकी निर्जरा न हो जाए तब तक नरकगति नामकर्म की सत्ता मानी जाएगी, क्योंकि बंध द्वारा बद्ध कर्मपुद्गलों ने नरकगति नामकर्म के रूप में अपना आत्मस्वरूप प्राप्त करके उसी रूप में, अवस्थान कर लिया है। इस प्रकार की सत्ता बन्ध - सत्ता समझी जाएगी, किन्तु यदि नरकगतिनामकर्म तिर्यञ्चगति नामकर्म में संक्रमित हो गए, नरकगति के बन्ध द्वारा जो कर्मस्वरूप प्राप्त किया था, उसमें तिर्यञ्चगति का संक्रमण होने से कर्म ने अपना तिर्यंचगतिक स्वरूप प्राप्त किया और उसी रूप में उदय में न आने तक स्थित रहा, यह संक्रमणसत्ता हुई। इसमें नरकगतिनामकर्म की सत्ता, जो बन्ध से उत्पन्न हुई थी, उसका स्वभावान्तर या स्वरूपान्तर होने से संक्रमण हो गया और वह पूर्व सत्ता विच्छिन्न होकर संक्रमितसत्ता अवस्थित हुई। सत्ता के दो प्रकार : सद्भावसत्ता, सम्भवसत्ता इसी प्रकार सत्ता के और भी दो प्रकार हैं- सद्भावसत्ता और सम्भवसत्ता । अमुक समय में किन्हीं प्रकृतियों की सत्ता न होने पर भी भविष्य में उनके सत्ता में होने की सम्भावना मानकर जो सत्ता मानी जाती है, उसे सम्भवसत्ता कहते हैं, और जिन प्रकृतियों की उस समय सत्ता होती है, उसे सद्भाव (स्वरूप) सत्ता कहते हैं। दोनों का उदाहरणपूर्वक स्पष्टीकरण उदाहरणार्थ- नरकायु और तिर्यंचायु की सत्ता वाला उपशमश्रेणी का प्रारम्भ नहीं करता है। फिर भी ग्यारहवें गुणस्थान में १४८ प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती हैं। उसका कारण यह है कि पहले यदि देवायु अथवा मनुष्यायु बांध ली हो तो उस उसकी सद्भावसत्ता मानी जाती है, लेकिन ऐसी स्थिति में पूर्वोक्त नरक और तिर्यंच इन दो आयुओं को सद्भावसत्ता नहीं मानी जाती। पर यदि जीव ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर बाद में उक्त दो (नरक - तिर्यञ्च) आयुओं को बांधने वाला हो, उस अपेक्षा से सत्ता मानने पर उसे सम्भवसत्ता कहा जाएगा। सत्ता के अन्य प्रकार पुनः सम्भवसत्ता और सद्भावसत्ता में भी पूर्वबद्धायु और बद्धायु ऐसे दो प्रकार होते हैं। उनमें भी पृथक्-पृथक् अनेक जीवों की अपेक्षा से तथा उपशम श्रेणी और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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