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________________ २४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ होता है। इस प्रकार तीस प्रकृतिक बन्धस्थान भी छह होते हैं। यह छठा बन्धस्थान हुआ। (७) देवगति-सहित उनतीस के बन्धस्थान में आहारकद्विक को मिलाने से देवगति-सहित इकत्तीस का सप्तम बन्धस्थान होता है। (८) एक प्रकृतिक बन्धस्थान में केवल एक यश:कीर्ति का ही बन्ध होता है। इस प्रकार नामकर्म के तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाइस, उनतीस, तीस, इकतीस और एक प्रकृतिक ८ बन्धस्थान हुए। ___ नामकर्म के बन्धस्थानों के भूयस्कारादि बन्ध-नामकर्म के बन्धस्थान ८ हैं, उनके भूयस्कार छह, अल्पतर सात, अवस्थितबन्ध आठ और अवक्तव्य बन्ध तीन होते हैं। __ छह भूयस्कारबन्ध-(१) तेईस का बन्ध करके पच्चीस का बन्ध करना पहला भूयस्कारबन्ध है, (२) पच्चीस का बन्ध करके छब्बीस का बन्ध करना, दूसरा भूयस्कारबन्ध, (३) छब्बीस का बन्ध करके अट्राइस का बन्ध करना तीसरा भूयस्कारबन्ध, (४) अट्ठाइस का बन्ध करके उनतीस, का बन्ध करना चौथा भूयस्कारबन्ध, (५) उनतीस का बन्ध करके तीस का बन्ध करना पांचवाँ भूयस्कारबन्ध, और (६) तीस का बन्ध करके ३१ प्रकृतियों का बन्ध करना छठा भूयस्कारबन्ध है। सात अल्पतरबन्ध-अपूर्वकरण गुणस्थान में देवगति योग्य २८, २९, ३० या ३१ का बन्ध करके १ प्रकृति का बन्ध करता है, तो पहला अल्पतरबन्ध होता है आहारकद्विक और तीर्थंकरनामकर्म सहित इकत्तीस का बन्ध करके जो जीव देवलोक में उत्पन्न होता है, वह प्रथम समय में ही मनुष्यगति युक्त ३० प्रकृतियों का बन्ध करता है, यह दूसरा अल्पतरबन्ध है। वही जीव देवलोक.से च्युत होकर मनुष्यगति में जन्म लेकर देवगतियोग्य तीर्थंकर नाम सहित २९ प्रकृतियों का बन्ध करता है, तब तीसरा अल्पतरबन्ध होता है। जब कोई जीव तिर्यंच या मनुष्य तिर्यंचगति के योग्य पूर्वोक्त २९ प्रकृतियों का बन्ध करके विशुद्ध परिणामों के कारण देवगति योग्य २८ प्रकृतियों का बन्ध करता है, तब चौथा अल्पतरबन्ध होता है। अट्ठाइस प्रकृतिक बन्धस्थान का बन्ध करके संक्लिष्ट परिणामों के कारण जब कोई जीव एकेन्द्रिय के योग्य छब्बीस प्रकृतियों का बन्ध करता है, तब पांचवाँ अल्पतरबन्ध होता है। छब्बीस का बन्ध करके पच्चीस का बन्ध करने पर छठा अल्पतरबन्ध होता है। तथा पच्चीस का बन्ध करके तेईस का बन्ध करने पर सातवाँ अल्पतरबन्ध होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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