________________
कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता २३
विहायोगति, उच्छ्वास और पराघात, इस प्रकार नरकगतियोग्य अट्ठाइस प्रकृति रूप चतुर्थ बन्धस्थान होता है। ___ (५) (क से च तक) (क) नौ ध्रुववाहिनी तथा त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर और अस्थिर में से एक, शुभ और अशुभ में से एक, दुर्भग, अनादेय, यश:कीर्ति और अयश:कीर्ति में से एक, तिर्यंचगति, द्वीन्द्रियजाति, औदारिक शरीर हुण्डक संस्थान, तिर्यंचानुपूर्वी, सेवार्त संहनन, औदारिक अंगोपांग, दुःस्वर, अशुभ विहायोगति, उच्छ्वास और पराघात, इस प्रकार द्वीन्द्रिय पर्याप्त-सहित २९ प्रकृतियों का बन्धस्थान होता है।
(ख, ग, घ)-इसमें (पूर्वोक्त २९ प्रकृतिक बन्धस्थान में) द्वीन्द्रिय के स्थान में त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय के स्थान में चतुरिन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के स्थान में पंचेन्द्रिय को जोड़ने से क्रमशः त्रीन्द्रिययुक्त, चतुरिन्द्रिययुक्त एवं पंचेन्द्रिययुक्त, यों पंचम बन्धस्थान का दूसरा, तीसरा और चौथा विकल्प होता है। ____(ङ) इस स्थान में इतना विशेष समझना चाहिये कि सुभग और दुर्भग, आदेय
और अनादेय, सुस्वर और दुःस्वर, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, इन ४ युगलों में से एक-एक प्रकृति का तथा छह संस्थानों और ६ संहननों में से किसी एक संस्थान और एक संहनन का बन्ध होता है। इन (पूर्वोक्त २९ प्रकृतियों) में से तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी को घटाकर उनके बदले मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी को जोड़ने से पर्याप्त मनुष्यसहित २९ का बन्ध-स्थान होता है। ____(च): नौ ध्रुवबन्धिनी, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर या अस्थिर, शुभ या अशुभ, आदेय, यश:कीर्ति. अथवा अयश:कीर्ति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, प्रथम संस्थान, देवानुपूर्वी, वैक्रिय अंगोपांग, सुस्वर, प्रशस्त विहायोगति, उच्छ्वास, पराघात, तीर्थंकरनाम, इन प्रकृतिरूप देवगति और तीर्थंकर सहित २९ प्रकृतियों का बन्धस्थान होता है। इन स्थानों का बन्धक द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में तथा मनुष्यगति और देवगति में जन्म लेता है। यों क, ख, ग, घ, ङ और च इन ६ विकल्पों में पंचम बन्धस्थान पूर्ण होता है। . -- (६) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त युक्त २९ प्रकृतियों के चार बन्धस्थानों में उद्योत प्रकृति के मिलाने से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त सहित तीस प्रकृतिक चार बन्धस्थान होते हैं। पर्याप्त मनुष्य-सहित २९ के बन्धस्थान में तीर्थंकर प्रकृति के मिलाने से मनुष्यगति-सहित तीस प्रकृतिक बन्धस्थान होता है। देवगतिसहित उनतीस के बन्धस्थान में से तीर्थंकर प्रकृति को घटाने और आहारकद्विक को मिलाने से देवगतियुक्त ३० प्रकृतियों का बन्धस्थान
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org