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गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ४१७ समझने चाहिए। बारहवें में उक्त तीन और चौथा क्षायिक सम्यक्त्व ये चार भाव होते हैं। शेष पांच (पहले, दूसरे, तीसरे, तेरहवें और चौदहवें) गुणस्थानों में तीन भाव हैं। पहले, दूसरे और तीसरे गुणस्थान में औदयिक भाव (मनुष्य आदि गति) पारिणामिक भाव (जीवत्व आदि) और क्षायोपशमिक भाव (भावेन्द्रिय आदि), ये तीन भाव हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में औदयिक (मनुष्यत्व),पारिणामिक (जीवत्व) और क्षायिक (ज्ञान आदि) ये तीन भाव हैं। निष्कर्ष यह है-एक जीव में विभिन्न समय में पाये जाने वाले भावों की विवक्षा से कथन इस प्रकार है-पहले तीन गुणस्थानों में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये तीन भाव, चौथे से ग्यारहवें तक आठ गुणस्थानों में पांचों भाव, बारहवें गुणस्थान में औपशमिक के सिवाय चार भाव, तथा तेरहवें और चौदहवें गणस्थान में औपशमिक और क्षायोपशमिक के सिवाय शेष तीन भाव होते हैं।
चौदह गुणस्थानों के पांच भावों के उत्तरभेदों की अपेक्षा से प्ररूपणा अनेक जीवों की अपेक्षा से चौदह गुणस्थानों में पंचविध भावों के उत्तरभेदों की विवक्षा से प्ररूपणा इस प्रकार है-(१) क्षायोपशमिक-पहले दो गुणस्थानों में तीन अज्ञान, चक्षु आदि दो दर्शन, दान आदि ५ लब्धियाँ, ये दस। तीसरे गुणस्थान में तीन ज्ञान, तीन दर्शन, मिश्रदृष्टि तथा पांच लब्धियाँ, ये बारह भेद। चौथे में तीसरे गुणस्थान वाले बारह, किन्तु मिश्रदृष्टि के स्थान में सम्यक्त्व, पांचवें में चौथे गुणस्थान वाले १२, और देशविरति, कुल १३, छठे-सातवें में उक्त तेरह में से देशविरति को कम करके उसमें सर्वविरति और मनःपर्यायज्ञान मिलाने से १४, आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में उक्त चौदह में से सम्यक्त्व के सिवाय शेष १३, ग्यारहवें, बारहवें में उक्त तेरह में से चारित्र को छोड़कर शेष १२ क्षायोपशमिक भाव हैं। चौदहवें में क्षायोपशमिक भाव नहीं है।
(२) औदयिक भाव-पहले गुणस्थानों में अज्ञानादि २१, दूसरे में मिथ्यात्व के सिवाय २०, तीसरे-चौथे में अज्ञान को छोड़कर १९, पांचवें में देवगति, नरकगति के सिवाय उक्त १९ में से शेष १७, छठे में तिर्यञ्चगति और असंयम कम करके १५, सातवें में कृष्णादि तीन लेश्याओं को छोड़कर उक्त १५ में से शेष १२, आठवें-नौवें में तेजः और पद्मलेश्या के सिवाय १०, दसवें में क्रोध, मान, माया इन तीन कषायों
१. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा० ७० विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० २०६, २०७ (ख) संमाइ चउसु तिंग चउ, भावा चउ पणुवसामगुवसंते।
चउ खीणापुव्व तिन्नि,सेसगुणट्ठाणगेग जिए॥ ७० ॥' -चतुर्थ कर्मग्रन्थ
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