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________________ ४१६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ ___ धर्मास्तिकाय आदि पांच द्रव्यों में से पुद्गलास्तिकाय के सिवाय शेष चारों द्रव्यों के पारिणामिक भाव ही होता है। धर्मास्तिकाय जीव-पुद्गलों की गति में सहायक बनने रूप अपने कर्म में अनादिकाल से परिणत हुआ करता है। अधर्मास्तिकाय स्थिति में सहायक बनने रूप कार्य में, आकाशास्तिकाय अवकाश देने रूप कार्य में, और काल, समय-पर्यायरूप स्वकार्य में अनादिकाल से परिणमन किया करता है। परन्तु पुद्गल द्रव्य के पारिणामिक और औदयिक ये दो भाव हैं। स्कन्धों में भी द्वयणुकादि सादि स्कन्ध पारिणामिक भाव वाले ही हैं; लेकिन औदारिक आदि शरीररूप स्कन्ध पारिणामिक और औदयिक दोनों भावों वाले हैं; क्योंकि ये स्वस्वरूप में परिणत होते रहने के कारण पारिणामिक भाव वाले और औदारिक आदि शरीर नामकर्म के उदयजन्य होने के कारण औदयिक भाव वाले हैं। पुद्गल द्रव्य के जो दो भाव कहे गए हैं, उन्हें कर्म पुद्गल से भिन्न पुद्गल के समझने चाहिए। कर्म पुद्गल के तो औपशमिक आदि पांचों भाव हैं, जिनका विस्तृत वर्णन किया जा चुका चौदह गुणस्थानों में पांच भावों के मूल भेदों की प्ररूपणा एक जीव की अपेक्षा से चौथे, पांचवें, छठे और सातवें, इन चार गुणस्थानों में तीन या चार भाव होते हैं। औदयिक भाव में मनुष्यादि गति, पारिणामिक भाव में जीवत्व आदि, और क्षायोपशमिक भाव में भावेन्द्रिय, सम्यक्त्व आदि, ये तीन भाव होते हैं, जो क्षायोपशमिक के समय पाये जाते हैं। परन्तु जब क्षायिक या औपशमिक सम्यक्त्व इन दोनों में से कोई एक सम्यक्त्व तथा उक्त तीन, इस प्रकार चार भाव समझने चाहिए। नौवें, दसवें और ग्यारहवें इन तीन गुणस्थानों में चार या पांच भाव होते हैं। चार भाव उस समय होते हैं, जब औपशमिक सम्यक्त्वी जीव उपशम श्रेणि वाला हो। चार भावों में तीन तो उपर्युक्त हैं ही, चौथा औपशमिक सम्यक्त्व और चारित्र है। पांच भावों में उक्त तीन और चौथा क्षायिक सम्यक्त्व और पांचवां है-औपशमिक चारित्र। आठवें और बारहवें, इन दो गुणस्थानों में चार भाव होते हैं। आठवें में पूर्वोक्त तीन, चौथा औपशमिक और क्षायिक; इन दो में से कोई एक सम्यक्त्व, ये चार भाव १. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा० ६९ विवेचन, पृ० २०४ से २०६ (ख) मोहेव समो मीसो, चउघाइसु अट्ठकम्मंसु च सेसा। धम्माइ परिणामिय-भावे खंधा उदइएवि॥६९॥ -चर्तुथ कर्मग्रन्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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